एक साधु स्‍त्री के छूने से अपवित्र हो गया है ! अब सात दिन का उपवास कर रहा

संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द

एक स्‍त्री चालीस पचास वर्ष तक एक मशीन की तरह सुबह से सांझ, यंत्र की तरह घूमती रहती है और वही काम करती रहती है। और इसका परिणाम है कि मनुष्य के पूरे जीवन में विष घुल जाता है।अभी जब मैं बम्बई था कुछ दिन पहले, एक मित्र ने आकर मुझे खबर दी कि एक बहुत बड़े संन्यासी वहां प्रवचन कर रहे है। भगवान की कथा कर रहे है, और स्‍त्री नहीं छू सकती हैं उन्हें!
एक स्त्री अजनबी आयी होगी! उसने उनके पैर छू लिए तो महाराज भारी कष्ट में पड़ गये हैं! अपवित्र हो गये है! उन्होने सात दिन का उपवास किया है शुद्धता के लिए! जहा दस पन्द्रह हजार स्त्रियां पहुंचती थीं, वहाँ सात दिन के उपवास के कारण एक लाख स्त्रियां इकट्ठी होने लगीं कि यह आदमी असली साधु है! स्त्रियां भी यही सोचती है कि जो उनके छूने से अपवित्र हो जायेगा, असली साधु है! हमने उनको समझाया हुआ है। नहीं तो वहां एक स्‍त्री भी नहीं जानी थी फिर। क्योंकि स्‍त्री के लिए भारी अपमान की बात है। लेकिन अपमान का खयाल ही मिट गया है। लम्बी गुलामी अपमान के खयाल मिटा देती है। लाख स्त्रियां वहां इकट्ठी हो गयी है! सारी बम्बई में यही चर्चा है कि यह आदमी है असली साधु! स्‍त्री के छूने से अपवित्र हो गया है! सात दिन का उपवास कर रहा है! उन महाराज से किसी को पूछना चाहिए, पैदा किस से हुए थे? हड्डी, मांस, मज्जा किसने बनाया था? वह सब स्‍त्री से लेकर आ गये हैं और अब अपवित्र होते है स्‍त्री के छूने से। हद्द कमजोर साधुता है, जो स्‍त्री के छूने से अपवित्र हो जाती है! लेकिन इन्ही सारे लोगों की लम्बी परपरा ने स्‍त्री को दीन—हीन और नीचा बनाया है। और मजा यह है—मजा यह है, कि यह जो दीन—हीनता की लम्बी परंपरा है, इस परंपरा को तो स्त्रियां ही पूरी तरह बल देने में अग्रणी है! कभी के मंदिर मिट जायें और कभी के गिरजे समाप्त हो जायें—स्त्रियां ही पालन पोषण कर रही है मंदिरो, गिरजों, साधु, संतो—महंतों का। चार स्त्रियां दिखायी पड़ेगी एक साधु के पास, तब कही एक पुरुष दिखायी पड़ेगा। वह पुरुष भी अपनी पत्नी के पीछे बेचारा चला आया हुआ होगा। जब तक हम स्‍त्री—पुरुष के बीच के ये अपमानजनक फासले, ये अपमानजनक दूरियां—कि छूने से कोई अपवित्र हो जायेगा, नहीं तोड़ देते हैं, तब तक शायद हम स्‍त्री को समान हक भी नहीं दे सकते।

अगर एक बेहतर दुनिया बनानी हो तो स्‍त्री पुरुष के समस्त फासले गिरा देने हैं। भिन्नता बचेगी, लेकिन समान तल पर दोनों को खड़ा कर देना है और ऐसा इंतजाम करना है कि ‘स्‍त्री को स्‍त्री होने की कांशसनेस’ और ‘पुरुष को पुरुष होने की कांशसनेस’ चौबीस घंटे न घेरे रहे। यह पता भी नहीं चलना चाहिए।अभी तो हम इतने लोग यहां बैठे हैं, एक स्‍त्री आये तो सारे लोगों को खयाल हो जाता है कि स्‍त्री आ गयी। स्‍त्री को भी पूरा खयाल है कि पुरुष यहाँ बैठे हुए है।

यह अशिष्टता है, अनकल्चर्डनेस है, असंस्कृति है, असभ्यता है। यह बोध नहीं होना चाहिए। ये बोध गिरने चाहिए। अगर ये गिर सकें तो ही हम एक अच्छे समाज का निर्माण कर सकते है। (ओशो साहित्य से )

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