संकलन एवम् प्रस्तुति/मक्सिम आनन्द
एक बौद्ध भिक्षु की कथा है
कि वह एक ब्राह्मण के द्वार पर भिक्षा मांगने गया। बाह्मण का घर था, बुद्ध से ब्राह्मण नाराज था। उसने अपने घर के लोगों को कह रखा था कि और कुछ भी हो, बौद्ध भिक्षु भर को एक दाना भी मत देना कभी इस घर से। ब्राम्हण घर पर नहीं था, पत्नी घर पर थी; भिक्षु को देखकर उसका मन तो हुआ कि कुछ दे दे। इतना शान्त, चुपचाप, मौन भिक्षा-पात्र फैलाये खड़ा था, और ऐसा पवित्र, फूल-जैसा।
लेकिन पति की याद आयी कि, वह पति पण्डित है और पण्डित भयंकर होते हैं,
वह लौटकर टूट पड़ेगा। सिद्धान्त का सवाल है उसके लिए। कौन निर्दोष है बच्चे की तरह, यह सवाल नहीं है, सिद्धान्त का सवाल है—
भिक्षु को, बौद्ध भिक्षु को देना अपने धर्म पर कुल्हाड़ी मारना है। वहां शास्त्र मूल्यवान है,
जीवित सत्यों का कोई मूल्य नहीं है। तो भी उसने सोचा कि इस भिक्षु को ऐसे ही चले जाने देना अच्छा नहीं होगा। वह बाहर आयी और उसने कहाः क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी। भिक्षु चला गया। पर बड़ी हैरानी हुई कि दूसरे दिन फिर भिक्षु द्वार पर खड़ा है। वह पत्नी भी थोड़ी चिन्तित हुई कि कल मना भी कर दिया। फिर उसने मना किया।
कहानी बड़ी अनूठी है;
शायद न भी घटी हो, घटी हो। कहते हैं, ग्यारह साल तक वह भिक्षु उस द्वार पर भिक्षा मांगने आता ही रहा। और रोज जब पत्नी कह देती कि क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी, वह चला जाता। ग्यारह साल में पण्डित भी परेशान हो गया। पत्नी भी बार-बार कहती कि क्या अदभुत आदमी है! दिखता है कि बिना भिक्षा लिये जायेगा ही नहीं।
ग्यारह साल काफी लम्बा वक्त है। आखिर एक दिन पण्डित ने उसे रास्ते में पकड़ लिया और कहा कि सुनो, तुम किस आशा से आये चले जा रहे हो, जब तुम्हें कह दिया निरन्तर हजारों बार? उस भिक्षु ने कहा, “अनुगृहीत हूं। क्योंकि इतने प्रेम से कोई कहता भी कहां है कि जाओ, भिक्षा न मिलेगी! इतना भी क्या कम है? भिखारी के लिए द्वार तक
आना और कहना कि क्षमा करो, भिक्षा न मिलेगी, क्या कम है? मेरी पात्रता क्या है! अनुगृहीत हूं! और तुम्हारे द्वार पर मेरे लिए साधना का जो अवसर मिला है, वह किसी दूसरे द्वार पर नहीं मिला है। इसलिए नाराज मत होओ, मुझे आने दो। तुम भिक्षा दो या न दो, यह सवाल नहीं है।’
