संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
बहुत पुराने समय की बात है, एक दुर्गम पहाड़ के ऊपर एक स्वर्ण का मंदिर था। उस मंदिर में जितनी संपदा थी, उतनी उस समय सारी जमीन पर भी मिला कर नहीं थी। उस मंदिर का जो प्रधान पुजारी था, उसको मृत्यु निकट आई, तो उसके सामने सवाल उठा कि वह मंदिर के दूसरे पुजारी को नियुक्त कर दे। उस मंदिर की प्रथा थी कि जो व्यक्ति उस युग का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो, वहीं मंदिर का पुजारी हो सकता था।
घोषणा की गई कि एक निश्चित समय पर, जिन-जिन व्यक्तियों को भी यह ख्याल हो कि वे शक्तिशाली है, पर्वत के नीचे इकट्ठे हो जाएं। निश्चित समय पर, सारे प्रतियोगी पर्वत की चढ़ाई पर निकले, जो सबसे पहले मंदिर में पहुंच जाएगा, वही मंदिर का पुजारी हो जाएगा।
स्वाभाविक था कि जिनमें भी बल था, वे सारे लोग इकट्ठे हुए। निश्चित दिन पर उन सारे लोगों ने पर्वत की चढ़ाई शुरु को। चढ़ाई शुरु करते वक्त जो जितना बलिष्ठ था, उसने उतना ही बड़ा पत्थर भी अपने कंधे पर रख लिया, ताकि उसका पौरुष उस पत्थर के भार से प्रकट हो सके। वे उस पर्वत पर चढ़ना शुरू किए। भार था भारी, धूप थी कठिन, पर्वत था सीधा। कुछ गिरे, खड्डों में और अपने पत्थरों के साथ ही मर गये। कुछ बचे वे घिसटते है, चलते हैं, भूखे-प्यासे ।
अंतिम दिन था, कोई थोड़ा आगे था, कोई थोड़ा पीछे। अब गति बढ़ गई थी, निर्णायक घड़ी थी। तभी उन सबने देखा कि एक युवक अचानक उनके पास से तेजी से आगे निकला जाता है। तो घबरा गये, लेकिन फिर हंसने लगे, क्योंकि उस पागल ने अपना पत्थर जो था कंधे का वह कहीं फेंक दिया था। तीव्रता से वह गया और सबसे पहले पहुंच गया। लेकिन जो दूसरे थे उन्होंने सोचा, पागल है, कौन इसे पूछेगा? लेकिन जब वे सांझ पहुंचे तो चकित रह गये, वह नया पुजारी नियुक्त हो गया था।
उन सबने शिकायत की जाकर कि यह कैसा अन्याय है? उस पुजारी ने कहाः न तो धोखा है, न अन्याय है। लेकिन मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूं कि किसने तुमसे कहा था कि तुम पत्थर लेकर चढ़ो? इस युवक ने अदभुत साहस का परिचय दिया है और साहस यह है कि उस अकेले ने पत्थर छोड़ने की हिम्मत की।
दुनिया में भीड़ से अलग होने से बड़ी और कोई कठिन बात नहीं है। जो भीड़ कर रही हो, जो सब कर रहे हों उससे एक व्यक्ति का अलग होकर कुछ कर लेना, अत्यंत नैतिक शक्ति का, आत्मिक शक्ति का प्रतीक है।
