संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक पूर्णिमा की रात एक चोर ने एक बड़ी चोरी की, बहुत से गहने चुराये। चोरी के गहने लिये वह एक सुनसान सड़क पर भागा जा रहा था। स्वभावतः वह बहुत डरा हुआ था। अचानक उसे अपने पीछे किसी की पदचाप सुनायी देने लगी।
ऐसा अक्सर होता है, अधेरे में अब तुम अकेले चल रहे होते ही तो तुम्हें अपनी स्वयं को पदचाप सुनायी देने लगती है, लगता है पीछे कोई चल रहा है। चोर ने जब कनखियों से पीछे की ओर देखा तो पाया कि सच में ही कोई उसका पीछा कर रहा है। यह उसकी अपनी ही परछाई थी। लेकिन चूंकि वह दौड रहा था. उसके पास कोई उपाय नहीं था कि वह पता लगा पाये कि पीछे कौन है। उसके सामने तो बस अब यही सवाल था कि वह पीछा करने वाले से कैसे बच निकले। उसने और तेज दौड़ना शुरू कर दिया। वह कनखियों से पीछे भी देखता जा रहा था, लेकिन उसने पाया कि पीछा करने वाला उसके पीछे ही है। वह बुरी तरह थक चुका था. लेकिन अभी तक उससे अपना पीछा नहीं छुड़ा पाया था। थककर वह एक पेड़ के नीचे गिर गया, और चूंकि पेड़ के नीचे चांद की रोशनी नहीं थी, सो उसको छाया भी गायब हो गयी। वह हैरान हो गया कि अभी तो वह आदमी पीछे ही था, अचानक कहां गया। थोड़ा साहस बटोरकर वह उठा और चारों ओर देखने लगा। जैसे ही वह पेड़ की छाया से बाहर निकला, उसके पीछे उसकी छाया बन गयी। वह मुड़ा और उसने अपनी छाया को देखा। तब उसे असली बात पता चली, और अपनी मूढ़ता पर वह हंसने लगा।
हमारी अधिकांश समस्याएं इसीलिये हैं क्योंकि हमने कभी उनसे आमना-सामना नहीं किया, उनसे आंख मिलाकर नहीं देखा। उनका सामना न करने से ही उन्हें ऊर्जा मिलती है, उन्हें टालते रहने से उन्हें ऊर्जा मिलती है। क्योंकि उन्हें टालकर तुम उन्हें स्वीकार कर रहे हो। उस स्वीकृति में ही उनका अस्तित्व है। वरना उनका अस्तित्व ही नहीं है।
