संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक ततैया ने विशाल भवन के बाहर खिड़की के पास अपना घर बनाया था। सर्दियों में ततैया सोती, विश्राम करती। गर्मियों में उड़ती ,नाचती, फूलों से पराग इकट्ठा करती। प्रसन्नचित्त थी, आनंदित थी। पर ततैया बड़ी विशिष्ट थी. विचारक थी- सोचती बहुत और दूसरी ततैयों को बड़े निंदा के भाव से देखती, क्योंकि विचार की कोई झलक भी उन्हें नहीं मिली, चिंतन-मनन उन्होंने जाना नहीं, शास्त्रों से उनकी कोई पहचान नहीं।
जिस भवन के बाहर वह रहती थी. अक्सर उसमे भीतर प्रवेश करती, उड़ती। वह भवन उसे बड़ा प्यारा था। भवन वस्तुत: एक बड़ा ग्रंथालय था। धीरे-धीरे उसने पढ़ना भी शुरु कर दिया। यह दर्शन की बड़ी-बड़ी मोटी किताबे पढ़ने लगी, विज्ञान और काव्य के बड़े शास्त्रों में प्रवेश करने लगी। उसकी अकड बढ़ती गई। अब तो दूसरी ततैयों को देखना भी उसे बरदाश्त न था, वे सब उसे नारकीय मालूम होने लगी।
एक दिन उड्डयन विज्ञान की एक किताब को पढ़ते वक्त वह बड़ी मुश्किल में पड़ गई। लिखा था उस किताब में , कि ततैया का शरीर उसके परों से बहुत ज्यादा वजनी होता है। तलैया को वस्तुतः नियमानुसार उड़ना नहीं चाहिए, उसके पर छोटे हैं, कमजोर हैं, शरीर वजनी है और बड़ा है। वह तो घबड़ा गई। अब तक उसे पता ही न चला था कि उसका शरीर बड़ा है और पर छोटे हैं। आज पहली दफा पता चला।
वह बड़ी उदास हो गई। उस दिन व अपने छत्ते तक उड़ कर न आ सकी। पैदल चलती हुई आई। अब तो हिलना- डुलना भी उसने बंद कर दिया। लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि एक पक्षी ने अचानक झपट्टा मारा। घबड़ाहट में शास्त्र भूल गया, ततैया उड़ गई।
जब दूर जाकर एक झाड़ी में उत्तरी, थोड़ा होश लौटा, घबड़ाहट बंद हुई, तब उसने सोचा कि यह क्या हुआ? ततैया उड़ नहीं सकती और मैं उड़ी। उस दिन से वह उड़ने लगी, उस दिन से उसने शास्त्रज्ञान छोड़ दिया; उस दिन से वह फिर ततैया हो गई, स्वाभाविक।
जीवन तुम्हारी जानकारी, तुम्हारे शास्त्रों, तुम्हारे नियमों के अनुसार नहीं चलता। यदि तुम अस्तित्व के इस उत्सव में भागीदार होना चाहते हो, तो छोड़ो अपनी जानकारियां और जीवन को सुनो, प्रकृति को सुनो।
