संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक सूफी फकीर हुआ। हसन उसका नाम था। उसके शिष्य ने एक दिन पूछा कि सुख है, यह तो समझ में आता है, क्योंकि परमात्मा है, वह पिता है, वह सुख दे रहा है। लेकिन दुख क्यों? दुख समझ में नहीं आता।
हसन अपनी नाव में बैठा था और दूसरी पार जा रहा था। उसने शिष्य को भी नाव में बिठा लिया, कुछ बोला नहीं। और एक ही चप्पू से उसने नाव चलानी शुरू कर दी। वह नाव गोलगोल घूमने लगी। उस युवक ने कहा, आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया है ? अगर एक ही चप्पू से नाव चलायी तो हम यहीं भटकते रहेंगे। इसी किनारे पर गोल-गोल घूमते रहेंगे। दूसरा चप्पू खराब है? या आपका हाथ काम नहीं कर रहा? या हाथ में दर्द है तो मैं चलाऊ।
हसन ने कहा, तू तो समझदार है। मैं तो समझा कि नासमझ है। अगर सुख ही सुख होगा, नाव वर्तुल में घूमती रहेगी। कहीं पहुंचेगी नहीं। उसको साधने के लिए विपरीत चाहिए। दो चप्पुओं से नाव चलती है। दो पैर से आदमी चलता है। दो हाथ से जीवन चलता है। रात और दिन चाहिए। सुख और दुख चाहिए। जन्म और मृत्यु चाहिए। अन्यथा नाव घूमती भवर बन जाएगी। तुम कहीं हवोगे ही नहीं।
जब कोई ठीक से देखना शुरु करता है कि सभी में वही है, तब तुम उसके दुख को भी अहोभाव से अंगीकार करते हो। तब तुम उसके सुख को भी अंगीकार करते हो, उसके दुख को भी। जब तुम दोनों को समान भाव से अंगीकार करते हो, तब न तो सुख सुख रह जाता है, न दुख दुख रह जाता है। उनकी भेदरेखा खो जाती है। और जब तुम दोनों को समभाव से देखते हो, तुम्हारा लगाव सुख से ज्यादा और दुख का विरोध टूट जाता है, तुम तत्क्षण अलग हो जाते हो। तुम तीसरे हो जाते हो। तुम साक्षी भाव को उपलब्ध हो जाते हो। दुख से छूट कर तब तुम सुख घर ले जाओगे।
