हर किसी को लगता है कि उसके बिना शायद दुनिया चलेगी ही नहीं…जैसे बुढ़िया और उसका मुर्गा…

संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द

तुमने सुनी होगी कहानी कि एक बूढी औरत के पास एक मुर्गा था। वह सुबह बांग देता था तभी सूरज उगता था। बुढ़ी अकड़ गई। और उसने गांव में लोगों को खबर कर दी कि मुझसे जरा सोच- समझ कर व्यवहार करना। ढंग और इज्जत से। क्योंकि अगर मैं चली गई अपने मुर्गे को ले कर दूसरे गांव तो याद रखना, सूरज इस गांव में कभी उगेगा ही नहीं। मेरा मुर्गा जब बांग देता है तभी सूरज उगता है।

और बात सच ही थी कि रोज ही मुर्गा बांग देता था तभी सूरज उगता था। गांव के लोग हंसे। लोगों ने मजाक उड़ाई कि तू पागल हो गई। तो बूढ़ी नाराजगी में दूसरे गांव चली गई। मुर्गे ने बांग दी और दूसरे गांव में सूरज उगा। तो बूढी ने कहा, अब रोएंगे। अब बैठे होंगे छाती पीटेंगे। न रहा मुर्गा, न उगेगा सूरज।

तुम्हारे तर्क भी… बूढी का तर्क भी है तो बहुत साफ। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुर्गे के बांग दिए बिना सूरज उगा हो । लेकिन बात बिलकुल उलटी है।

सूरज उगता है इसलिए मुर्गा बांग देता है। बांग देने के कारण सूरज नहीं उगते। लेकिन बुढ़िया को कौन समझाए ? तुमको कौन समझाए बूढी दूसरे गांव चली गई और उसने देखा कि सुरज अब यहां उग रहा है। और जब यहां उग रहा है तो हर गांव में कैसे उगेगा?

तुमने तो स्वयं को अपरिहार्य समझ लिया है। हर किसी को लगता है कि उसके बिना शायद दुनिया चलेगी ही नहीं, कोई बात नहीं है इतना बोझ लेने की। तुम नहीं थे, तो भी दुनिया मज़े से चल रही थी। तुम नहीं होओगे, तो भी चलती रहेगी। उतारोगे बोझ अपने सिर से।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *