(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द )
एक जैन संत हुए- गणेशवर्णी। वर्षों पहले उन्होंने पत्नी त्याग दी। साधु पुरुष थे। कोई बीस वर्ष त्याग के बाद, काशी में थे, तब खबर आई कि पत्नी मर गई। उनके मुंह से जो वचन निकला, वह याद रख लेने जैसा है। उन्होंने कहा, चलो झंझट मिटी। उनके भक्तों ने इस वचन का अर्थ लिया कि बड़ी वीतरागता है। थोड़ा सोचो, तो साफ हो जाएगा कि वीतरागता बिलकुल नहीं है। क्योंकि जिस पत्नी को बीस साल पहले छोड़ दिया, उसकी झंझट अभी कायम थी ? तो ही मिट सकती है। गणित बिलकुल सीधा और साफ है। यह पत्नी जो बीस साल पहले छोड़ दी, किसी न किसी तरह छाया की तरह पीछे चल रही होगी। यह मन में कहीं सवार होगी। इसका उपद्रव कायम था। बीस साल भी इसके उपद्रव को मिटा नहीं पाए थे, छोड़ने के बाद। यह मन सतत सोचता रहा होगा-पक्ष में, विपक्ष में। पत्नी के मरने पर यह वचन कि चलो झंझट मिटी, पत्नी के संबंध में कुछ भी नहीं बताते, सिर्फ पति के संबंध में बताते हैं कि यह आदमी भाग तो गया छोड़ कर, लेकिन छोड़ न पाया। और गणेशवर्णी साधु पुरुष थे। इसलिए थोड़ा सोच लेना-साधु पुरुष भी बड़ी भ्रांति में रह सकते हैं। उनके चरित्र में, आचरण में कोई भूल-चूक न थी। वे मर्यादा के पुरुष थे। ठीक-ठीक नियम से चलते थे। वहां कोई जरा भी दरार नहीं पा सकता, जरा त्रुटि नहीं पा सकता। सब आचरण ठीक था, साधुता पूरी थी। फिर भी भीतर कोई बात चूक गई। हिमालय पहुंच गए, झंझट साथ चली गई।
फिर दूसरी बात भी समझ लेने जैसी है। और वह यह कि अगर पत्नी के मरने पर पहला खयाल यह आया कि झंझट मिटी, तो कहीं जाने-अनजाने, अचेतन में, पत्नी की मृत्यु की आकांक्षा भी छिपी रही होगी। वह जरा गहरा। किसी तल पर पत्नी मिट जाए, न हो, समाप्त हो जाए। यह तो हिंसा हो गई। लेकिन एक-एक वचन भी अकारण नहीं आता, आसमान से नहीं आता। एक-एक वचन भी भीतर से आता है। और ऐसे क्षणों में, जब कि पत्नी मर गई, इसकी खबर आई हो, तुम ठीक- ठीक अपने रोजमर्रा के व्यवसायी होश में नहीं होते हो। तब तुमसे जो बात निकलती है, वह ज्यादा सही होती है।
