(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)
हम अपनी ही तलवार से अपने को ही छिन्न-भिन्न कर लेते हैं। किसी और ने तुम्हें थोड़े ही काटा है, देखें मंदिर में, एक आदमी जाता है, सिर झुकाकर चरणों में रख देता है परमात्मा के। लेकिन अगर आप गौर से देखें, तो उसकी अकड़ तो वहां वैसी की वैसी खड़ी है। असली चेहरा तो खड़ा ही हुआ है, नकली चेहरा झुका हुआ है। और असली चेहरा चारों तरफ देख रहा है कि देख लो, मेरे जैसा भक्त इस गांव में कोई भी नहीं!
मैंने सुना है, एक सम्राट सुबह-सुबह चर्च में प्रार्थना कर रहा था। और सम्राट था और पर्व का दिन था, इसलिए पहला हक उसी का था। जैसा हरिद्वार में या गंगा पर स्नान के वक्त पहला हक कि कौन स्नान करेगा?
धर्म के जगत में भी पहले का हक करने वाले लोग हैं। ये अहंकारी हैं। दंगा फसाद हो जाता है कुंभ के मेले में। क्योंकि जिनका हक था, उनके पहले किसी ने स्नान कर लिया, तो वहीं मार-पीट शुरू हो जाएगी। भगवान के दरवाजे पर भी आप इतनी आसानी से न घुस पाओगे, वहां लट्ठ लिए लोग खड़े होंगे कि हमारा हक पहले, तुम पहले कैसे जा रहे हो ?
वह सम्राट था, चर्च में पहला उसका हक था पर्व के दिन, तो अंधेरे में सुबह पांच बजे प्रार्थना करता था, क्योंकि फिर लोग आना शुरू हो जाते, भगवान से पहली मुलाकात उसकी होनी चाहिए। तो वह प्रार्थना कर रहा था और अंधेरे में कह रहा था, हे परमपिता! मैं ना-कुछ हूं, मैं दीन-दरिद्र हूं, पापी हूं, मुझे अपने चरणों में समा ले।
तभी उसे लगा कि कोई और अंधेरे में मौजूद है। अंधेरे में दिखाई तो ठीक से नहीं पड़ता था, तो उसने कान सजग किए। पास में ही कोई आदमी वेदी के पास झुका था और यही शब्द दोहरा रहा था कि हे परमात्मा, मैं ना-कुछ हूं, दीन-दरिद्र, तेरे पैरों की धूल, मुझे अपने चरणों में समा ले।
सम्राट ने कहा, यह कौन आदमी मेरे सामने कहने का दावा कर रहा है कि मैं ना-कुछ हूं? मुझसे ज्यादा ना-कुछ दूसरा कोई भी नहीं हो सकता। यह कौन है जो कह रहा है कि मैं दीन-दरिद्र हूं? जब मैं कह चुका, तो मुझसे ज्यादा दीन-दरिद्र कोई भी नहीं हो सकता। अपने शब्द वापस ले ले !
अगर सम्राट कह रहा हो कि मैं निरअहंकारी हूं, तो आप यह नहीं कह सकते कि आप भी निरअहंकारी हैं। क्योंकि सम्राट का अहंकार खड़ा हुआ, वह कहेगा, मुझसे ज्यादा होने का दावा? वह चाहे धन का हो, चाहे निरअहंकारिता का, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मुझसे ज्यादा तुम नहीं हो सकते। दीन-दरिद्र तो मैं प्रथम, ना-कुछ तो मैं प्रथम, लेकिन मेरा प्रथमपन जारी रहेगा।
तो तुम झुक जाते हो मंदिर में, लेकिन तुम्हारा अहंकार तो खड़ा रहता है। तुम्हारा सिर झुकता है, जो झूठा है, जिसका कोई मूल्य नहीं।
रावण के मन को अगर समझें, तो आप अपने भीतर रावण को पूरी तरह प्रतिष्ठित पाएंगे। और वही रावण आपको समझा रहा है कि राम तुम भला न हो, लेकिन रावण नहीं हो।
उसकी बिलकुल मत सुनें। उसकी काफी सुन चुके हैं। उसकी सुनने के कारण यह दुर्दशा है। अगर आपको लगता है कि राम मैं नहीं हूं, तो पक्का जानें कि आप रावण हैं। यह पक्का जानना राम की तरफ जाने का पहला कदम होगा। अपने को बुरा जानना शुभ होने की पहली क्रांतिकारी घटना है। मैं अंधेरे में हूं, ऐसी गहन प्रतीति प्रकाश की खोज बनती है। मैं अज्ञानी हूं, तो ज्ञान की जिज्ञासा शुरू होती है।
मध्य और आधे की बात मत सोचें। या इस पार या उस पार। और जो इस पार से छूटता है, वह तत्क्षण उस पार पहुंच जाता है। क्योंकि दोनों के बीच में जरा भी जगह नहीं है, जहां आप खड़े हो सकें। ज्ञान और अज्ञान के बीच जरा सी भी जगह नहीं है, जहां आप खड़े हो सकें। यहां अज्ञान गया कि ज्ञान आया, यह घटना युगपत है। जैसे सौ डिग्री पानी गरम हुआ, फिर भाप और पानी के बीच में जरा सी भी जगह नहीं है कि पानी का कुछ हिस्सा बीच में रुक जाए और कहे, हम पानी तो न रहे, लेकिन अभी भाप नहीं हैं, बीच में हैं। न, या तो पानी या भाप, इन दोनों के बीच कोई भी जगह नहीं है।
वह जो दूसरा किनारा है और यह किनारा है, इन दोनों के बीच में कोई नदी नहीं बह रही, जिसमें आप मध्य में अपनी नाव टेक दें। नदी वहां है ही नहीं, बस दो किनारे हैं। यह किनारा छूटा कि दूसरा किनारा मिला। और जब तक दूसरा न मिला हो, तब तक आप इस किनारे पर हैं, इसे बहुत गहनरूप से अनुभव करना। मन के धोखे में मत पड़ना।
