(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
मैंने सुना है, जापान में पहली दफा बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद हुआ। तो जिस भिक्षु ने अनुवाद करवाने की कोशिश की वह गरीब भिक्षु था। एक हजार साल पहले की बात है। और बुद्ध के पूरे ग्रंथों का जापानी में अनुवाद करवाने में कम से कम दस हजार रुपये का खर्च था। तो उस भिक्षु ने गांव-गांव जाकर रुपये इकट्ठे किए। वह दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया था कि उस इलाके में, जहां वह रहता था, अकाल पड़ गया। तो उसने वे दस हजार रुपये उठा कर अकाल के काम में दे दिए। उसके साथियों ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? पर वह कुछ भी नहीं बोला। उसने फिर रुपये मांगने शुरू कर दिए। फिर बेचारा दस साल में मुश्किल से दस हजार रुपये इकट्ठा कर पाया और बाढ़ आ गई। उसने वे दस हजार रुपये बाढ़ में दे दिए। अब वह सत्तर साल का हो गया था। उसके मित्रों ने कहा, तुम पागल हो गए हो! ग्रंथों का अनुवाद कब होगा? लेकिन वह हंसा और उसने फिर भीख मांगनी शुरू कर दी।
जब वह नब्बे साल का था तब फिर दस हजार रुपये इकट्ठा कर पाया। संयोग की बात कि न कोई अकाल पड़ा, न कोई बाढ़ आई, तो वह ग्रंथ अनुवाद हुआ और छपा। ग्रंथ में उसने लिखा: थर्ड एडीशन। ग्रंथ में उसने लिखा: तीसरा संस्करण। दो संस्करण पहले निकल चुके, लेकिन वे अदृश्य हैं..उसमें उसने लिखा। एक उस समय निकला जब अकाल पड़ा था, एक उस समय निकला जब बाढ़ आई थी, अब यह तीसरा निकल रहा है। और वे दो बहुत अदभुत थे, उनके मुकाबले यह कुछ भी नहीं है।
यह धारणा भारत में विकसित नहीं हो सकी। और यह जब तक विकसित न हो तब तक कोई मुल्क नैतिक नहीं हो सकता, न धार्मिक हो सकता है। भारत का धर्म भी अहंकारग्रस्त है। एक नई दृष्टि इस देश को जरूरी है..जो दूसरा भी मूल्यवान है, मुझसे ज्यादा मूल्यवान। चारों तरफ जो जीवन है वह मुझसे बहुत ज्यादा मूल्यवान है और अगर उस जीवन के लिए मैं मिट भी जाऊं तो भी मैं काम आ गया हूं। वह जो चारों तरफ जीवन है, उस जीवन की सेवा से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है, उस जीवन को प्रेम देने से बड़ा कोई परमात्मा नहीं है। यह तीसरी धारणा विकसित करनी जरूरी है ।