(संकलन / मैक्सिम आनन्द एवं प्रस्तुति /दरवेश आनन्द )
सूफियों में एक कहावत है कि जब फकीर सच में ही प्रार्थना को उपलब्ध होता है तो वह एक भी शब्द का उपयोग नहीं करता–न बाहर, न भीतर। वह सिर्फ खड़ा हो जाता है–चुप।
बायजीद से किसी ने पूछा कि तुम्हारी प्रार्थना क्या है? क्योंकि हमने कभी तुम्हारे मुंह से शब्द निकलते नहीं देखे। तुम भीतर क्या गुनगुनाते हो?
बायजीद ने कहा, बात ही मत करो गुनगुनाने की। उससे छिपा क्या है? उसे बताना क्या है? उसे समझाना क्या है? उससे कहना क्या है? मेरी हालत उस फकीर जैसी है, जो एक बार सम्राट के सामने खड़ा हो गया था–नग्न, फटे कपड़े, सूखी देह, पेट पीठ से लगा, बस आंखों में टिमटिमाता जीवन। सम्राट ने उससे पूछा कि कहो, क्या चाहते हो? उसने कहा, अगर मुझे देख कर तुम्हें समझ में नहीं आता कि क्या चाहता हूं, तो मेरे कहने से क्या खाक समझ में आएगा! मुझे देखो, इतना काफी है। तो बायजीद ने कहा कि सम्राट भला न समझ पाया हो, लेकिन वह आखिरी सम्राट तो समझ ही लेगा। मैं सिर्फ उसके द्वार पर खड़ा हो जाता हूं।
वह मस्जिद के सामने जाकर खड़ा हो जाता था। घंटों खड़ा रहता था, चला आता था। कभी एक शब्द न कहा, भीतर भी न उठाया। प्रार्थना का शब्दों से कुछ लेना-देना नहीं। प्रार्थना, उसके सामने, तुम जैसे हो वैसे ही खड़े हो जाने का नाम है। तुम जैसे हो अपनी निपट निजता में, नग्नता में, बिना कुछ छिपाए उसके सामने प्रकट हो जाने का नाम है। प्रार्थना एक प्रागटय है अपने भाव का।
अगर दोहराने से न छुटकारा मिलता हो, कुछ न कुछ दोहराने का मन होता हो, तो दादू का वचन अच्छा है: ज्यूं राखै त्यूं रहेंगे। इसको मंत्र बना लेना। इसकी अहर्निश गूंज को गूंजने देना। धीरे-धीरे गूंज रह जाएगी, मंत्र खो जाएगा। फिर गूंज भी खो जाएगी, भाव रह जाएगा। फिर भाव भी खो जाएगा, तुम्हारा शुद्ध अस्तित्व रह जाएगा।
