(संकलन और प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
एक पिता अपने बेटे से दुखी हैं। और कहते हैं कि मैं तो बेटे के भले के लिए सब-कुछ कर रहा हूं पर वह मुझे दुख दे रहा है। सारी कथा मैंने जानी। तो पिता ठीक कहते हैं कि भले के लिए कर रहे हैं; इसमें कुछ झूठ नहीं है। लेकिन करने का जो ढंग है, वह ऐसा है कि वे बंद ही कर दें यह भला काम करना, तो अच्छा है। करने का ढंग इतने दंभ से भरा है, करने का ढंग ऐसा है कि खुद को वे देवता और बेटे को शैतान समझते हैं। करने का ढंग इतना अहंकारपूर्ण है कि बेटे के अहंकार को चोट लगती है। चाहते वे भला करना हैं, लेकिन बुरा हो रहा है। और इतने दंभ से जब कोई दूसरे व्यक्ति को बदलने की कोशिश करता है, तो दूसरे पर चोट पहुंचती है। वह चोट संघातक हो जाती है; उस चोट से बदला लेने की वृत्ति पैदा होती है। और करने में उनको जो मजा आ रहा है, वह मजा यह नहीं है कि वे बेटे का भला कर रहे हैं।
वह मजा यह है कि मैं भला बाप हूं और बेटे के लिए सब कुर्बान कर रहा हूं। वह भी अहंकार का ही मजा है। मैंने उनसे कहा कि कभी आपने यह सोचा कि अगर बेटा सच में ही भला हो जाए, तो आप दुखी हो जाएंगे ! उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! कभी नहीं।
तो मैंने कहा, आप बैठें आंख बंद करके और सोचें। आपका तो सारा जीवन का अर्थ ही खो जाएगा। एक ही अर्थ है, वह बेटे को ठीक करना। आप बिलकुल अनआकुपाइड हो एकदम, कोई काम न बचेगा; मरने के सिवाय कुछ काम न बचेगा। वह बेटा आपको काम दे रहा है, रस दे रहा है। चौबीस घंटे आप उसी के पीछे पड़े हैं, उसी की कथा कह रहे हैं, और जगह-जगह प्रचार कर रहे हैं कि आप इतना कर रहे हैं और बेटा आपको दुख दे रहा है। अगर बेटा सच में आज भला हो जाए, तो आपको कल मरने के सिवाय कोई काम नहीं है।
थोड़े चौंके, धक्का खाया, लेकिन फिर सोचा। और कहने लगे कि शायद बात ठीक ही हो !
अगर आप दुख पाते हैं, तो आपको जान लेना चाहिए कि आप दुख दे रहे हैं। अगर आपको आनंद की कोई भी किरण मिलती है, तो जान लेना चाहिए कि जाने या अनजाने आपने कुछ आनंद दिया है, बांटा है। जो हम बांटते हैं, वही हमें मिलता है।
