गुरजिएफ ने कहा, तो फिर क्रांति हो सकती है।

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

आस्पेंस्की एक बहुत बड़ा प्रसिद्ध गणितज्ञ और फ़िलोशोफर था , और पूरी दुनिया भर में फिरा हुआ था । वो गुरजिएफ के पास ध्यान सीखने को आया…।

और गुरजिएफ ने पता है एक नजर उसकी तरफ देखा, और उठा कर एक कोरा कागज उसे दे दिया , और कहा, बगल के कमरे में चले जाओ। एक तरफ लिख दो जो तुम जानते हो- ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, नरक- जो भी तुम जानते हो, और दूसरी तरफ लिख दो , जो तुम नहीं जानते हो। फिर मैं तुमसे बात करूँगा। उसके बाद ही बात करूँगा। बुद्धिवादियों से मेरे मिलने का यही ढंग है।

हतप्रभ हुआ आस्पेंस्की। ऐसे स्वागत की अपेक्षा न थी, यह कैसा स्वागत! नमस्कार नहीं, बैठो, कैसे हो, कुशलता-क्षेम भी नहीं पूछी। उठा कर कागज दे दिया और कहा–बगल के कमरे में चले जाओ।

सर्द रात थी, बर्फ पड़ रही थी। और आस्पेंस्की ने लिखा है, मेरे जीवन में मैं पहली बार इतना घबड़ाया। उस आदमी की आँखों ने डरा दिया…! ! और जब मैं कलम और कागज लेकर बगल के कमरे में बैठा और सोचने लगा…

पहली दफा जीवन में- कि मैं क्या जानता हूँ…? तो मैं एक भी शब्द भी न लिख सका।

क्योंकि जो भी मैं जानता था वह मेरा नहीं था। और इस आदमी को धोखा देना मुश्किल है। मैंने जो किताबें लिखी हैं, वे और किताबों के आधार पर लिखी थीं; उनको माँजा था, सँवारा था, मगर वे किताबें मेरे भीतर आविर्भूत नहीं हुई थीं। वे फूल मेरे नहीं थे; वे किसी बगीचे से चुन लाया था। गजरा मैंने बनाया था, फूल मेरे नहीं थे। एक भी फूल मेरे भीतर नहीं खिला था।

आस्पेंस्की ने लिखा है कि मैं पसीने से तरबतर हो गया; बर्फ बाहर पड़ रही थी और मुझसे पसीना चू रहा था! मैं एक शब्द भी न लिख सका।

वापस लौट आया घंटे भर बाद। कोरा कागज , कोरा का कोरा ही गुरजिएफ को लौटा दिया और कहा कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। आप यहीं से शुरू करें- यह मान कर कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ।

गुरजिएफ ने पूछा, तो फिर इतनी किताबें कैसे लिखीं…?

आस्पेंस्की ने कहा, वह मेरे पांडित्य का प्रदर्शन था। लेकिन आपके पास ज्ञान के लिए आया हूँ, एक अज्ञानी की तरह आया हूँ।

गुरजिएफ ने कहा, तो फिर कुछ बात हो सकेगा। फिर क्रांति हो सकती है।

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