(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
मैंने सुना है, एक संन्यासी हिमायल की यात्रा पर गया था। भरी दोपहर, पहाड़ की ऊंची चढ़ाई, सीधी चढ़ाई, पसीना-पसीना, थका-मांदा हांफ़ता हुआ अपने छोटे-से बिस्तर को कंधे पर ढोता हुआ चढ़ रहा है।
उसके सामने ही एक छोटी सी लड़की, पहाड़ी लड़की अपने भाई को कंधे पर बैठाए हुए चढ़ रही है। वह भी लथपथ है पसीने से। वह भी हांफ रही है।
सन्यासी सिर्फ सहानुभूति में उससे बोला, बेटी तारे ऊपर बड़ा बोझ होगा। उस लड़की ने, उस पहाड़ी लड़की ने, उस भोली लड़की ने आंख उठाकर सन्यासी की तरफ देखा और कहा, स्वामी जी! बोझ तो आप लिए हैं ? यह मेरा छोटा भाई है।
बोझ और छोटे भाई में कुछ फर्क होता है। तराजू पर तो नहीं होगा। तराजू को क्या पता कि कौन छोटा भाई है और कौन बिस्तर है! तराजू पर तो यह भी हो सकता है कि छोटा भाई ज्यादा वजनी रहा हो। साधु का बंडल था, बहुत वजनी हो भी नहीं सकता। पहाड़ी बच्चा था, वजनी होगा। तराजू तो शायद कहे कि बच्चे में ज्यादा वजन है। तराजू के अपने ढंग होते हैं मगर हृदय के तराजू का तर्क और है।
उस लड़की ने जो बात कही, सन्यासी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मुझे ऐसी चोट पड़ी कि इस छोटी-सी बात को मैं अब तक न देख पाया? इस भोली-भाली लड़की ने कितनी बड़ी बात कह दी! छोटी-सी बात में कितनी बड़ी बात कह दी! छोटे भाई में बोझ नहीं होगा। जहां प्रेम है वहां जीवन निर्भार होता है।
