LOK ASAR SAMACHAR BALOD
स्त्री दर्पण मंच ‘अनिता अग्निहोत्री’ के उपन्यास ‘महानदी: के खंडांश प्रस्तुत कर रहा है। इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद लिपिका साहा जी द्वारा किया गया है जो शीघ्र ही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होगा। ‘महानदी ‘ एक महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसमें भारतवर्ष को देखने समझने की एक नयी दृष्टि दिखाई पड़ती है ,हम इस उपन्यास के माध्यम से एक अनजाने भारतवर्ष से परिचित होते हैं। इस उपन्यास में लेखिका ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का प्रसंग बड़े चाव से रचा है , कुछ अंश प्रस्तुत है…………
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परन्तु दो दिन वनश्री कटक में भी रहना चाहती है । आखिर क्यों ?
आज सुबह चौधरीबाजार की सड़क पकड़कर श्वेत-श्याम चित्र जैसे उड़िया बाजार से दोनों पैदल जानकीनाथ बसु के भवन की ओर जा रहे थे—–इन्द्रनाथ और वनश्री । गाड़ी से ही घूम सकते थे, लेकिन उससे किसी भी शहर की गर्माहट और रंग को हृदय में उतारा नहीं जा सकता । । इसीलिए वनश्री अपनी गाड़ी इन्द्रनाथ के पुराने मकान के सामने छोड़ आई थी । हल्की चाल में, जल-फतिंगा की भांति वनश्री जैसे कुछ उड़ती हुई, चलती हुई आगे बढ़ रही थी । पहले ही बात हो गई थी कि, उसे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का घर दिखाना है—जहां सुभाष ने अपने जीवन के प्रारम्भिक सत्रह वर्ष बिताए थे, और उनका स्कूल—रैवेन्श कलिजियेट स्कूल । यहाँ के कुछ बंगाली सोचते हैं कि, सुभाषचन्द्र रैवेन्श कालेज में पढ़े थे । वनश्री की भी यही धारणा थी । इन्द्रनाथ ने उसे समझाते हुए कहा कि, सन 1909 से 1913 तक रैवेन्श कलेजियेट स्कूल में पढ़ने के बाद सुभाषचन्द्र ने कोलकाता के प्रेसीडेन्सी कालेज में दाखिला ले लिया था ।
आज मैं आपका गाइड हूँ । प्रसन्नता के साथ इन्द्रनाथ ने पाया कि वह बांग्ला में ही वनश्री के साथ बात कर रहें हैं । उनके पिता उमाशंकर महान्ति स्कूल के अध्यापक थे एवं साथ में विशिष्ट निबंधकार भी । उनके दौर में बालेश्वर, कटक, पुरी के ओड़िया परिवार में बंग्ला पढ़ने का चलन था, ओड़या में अनगिनत बांग्ला के उपन्यास भी पढ़े जाते थे । इन्द्रनाथ की पीढ़ी बांग्ला नहीं पढ़ती, वैसे उस भाषा को सीख जाने के कारण , उसमें वार्तालाप करने का अभ्यास बना रहा । शुरूआती झिझक के परे हटते ही इन्द्रनाथ सहजता से बांग्ला बोल लेते हैं ।
उनकी अपनी पीढ़ी के मित्र भी बांग्ला में बात कर सकते या पढ़ते, यदि उड़ीसा प्रवासी बंगालियों में सांस्कृतिक निवेश का आग्रह रहता । बंगाली भारतवर्ष के किसी दूसरे प्रदेश की भाषा सीखना ही नहीं चाहता, फ्रेंच या स्पैनिश से वह बांग्ला में साहित्य काअनुवाद करेगा । परन्तु मराठी, तमिल अथवा ओड़िया साहित्य का अनुवाद करके वे नही पढ़ेंगे । इतनी आत्मसचेतन जाति के लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान का मोल समझना सम्भव ही नहीं है । इन्द्रनाथ ने अपने लेखक एवं अध्यापक मित्रों से ऐसी बातें बहुत बार सुनी थीं, इस पर अविश्वास भी नहीं करते—-तथापि इस पल वनश्री उनके लिए किसी भाषावलय की प्रतिनिधि मात्र नहीं थी । वह भी कोई ओड़ीसा के सांस्कृतिक प्रतिनिधि नहीं थे । दोनों ही सुभाषचंद्र के माया मुग्ध किशोर-किशोरी जैसे—उड़ती तितली के पीछे धूप-छांव में लिपटी पुरानी गलि से चले जा रहे थे ।
ओड़िया बाजार में जानकीनाथ बसु का महलनुमा प्राचीन भवन अब संग्रहशाला बन चुका था । सरकारी रक्षणावेक्षण के कारण सामनेवाली जमीन के घास के उद्यान और पेड़-पौधों को स्नेह-जतन मिलता है । अंदर के सभी कक्षों में तस्वीरों, किताबों और दस्तावेजों के पास साल-तारीख का ब्योरा छपा था । सन 1897 में इसी घर में सुभाषचन्द्र ने जन्म लिया था ।
इन्द्रनाथ देख रहे थे कि मुख्य मार्ग से भवन के गलिपथ में पैर रखते ही वनश्री के चेहरे की रंगत कैसे बदल गई, आँखें चमक उठीं, पैर भी संभल-संभल कर धर रही थी, मानों प्रत्येक पदक्षेप के साथ वह इस घर की धूल से लेकर स्मृतिकणों तक अपने में समेटना चाहती हो ।
मेरा शैशव भी ऐसी ही स्मृतिकातरता में बीता है—-इन्द्रनाथ मन ही मन सोच रहे थे । विवेक कुछ-कुछ जानता है, क्योंकि रैवेन्श कालेज में दोनों तीन वर्ष तक साथ-साथ पढ़े थे । बचपन में चौधरीबाजार के मकान से निकलकर चलते-चलते, चश्मा पहना, इकहरा एक किशोर स्कूल जाते समय एकबार ओड़िया बाजार के इस भवन का चक्कर लगा जाता था । उस समय तक यह भवन संग्रहशाला में परिवर्तित नहीं हुआ था एवं इसके आसपास के बागीचे और पेड़पौधों का उतना ध्यान नहीं रखा जाता था । कटक जिले के जिलाधिकारी कार्यलय के पास ही रैवेन्श कालेजियेट स्कूल है । वह जानकीनाथ बसु के भवन से कटक का पुराना मोहल्ला और बाजार इलाका पकड़कर पैदल चले जाते थे । सुबह की हवा, धूप-छाया के बीच उस रास्ते को तय करना बहुत भला लगता था ।
मन ही मन किशोर इन्द्रनाथ पचास वर्ष पीछे चले जाते थे—-उनके जैसा ही एक किशोर पैदल अथवा घोड़ागाड़ी से स्कूल की ओर जा रहा है । जिसका नाम सुभाषचन्द्र बसु है । कोमल, सुन्दर चेहरा—क्या उसी समय उनके अंदर चिंगारी सुलगने लगी थी ?
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पता है वनश्री,सुवर्ण जयन्ती के सुवेनियर के मुखपृष्ठ पर हमारे चित्रकला के शिक्षक धनन्जय दास ने एक मशाल का चित्र बनाया था, उसके तीन लौ,—-मधुसूदन दास, प्यारीमोहन आचार्य एवं बीच में सुभाषचन्द्र बसु । उसी दिन से मैं सुभाष के तरूण प्रतिज्ञादृप्त चेहरे का भक्त बन गया—और सुभाष मेरे स्कूल की स्मृतियों के साथ जुड़ गए, उनके समग्र जीवन को लेकर ।
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वनश्री हौले-हौले जानकीनाथ बसु के भवन के एकतल्ले से दोतल्ले पर चढ़ रही थी । वह हर कक्ष को बारीकी से देख रही थी, सुभाषचन्द्र बसु के हाथों से लिखे पत्रें को देखकर बोल रही थी, ‘पता है, ये अक्षर कितने जाने-पहचाने मालूम पड़ते हैं ? पुराने असबाबों को अँगुलियों से सहलाते हुए बोली, ‘आप विश्वास करेंगे या नहीं, मुझे नहीं पता, मैंने छुटपन में ही सुभाषचन्द्र बोस को अपना मन-प्राण समर्पण कर दिया था । यहाँ तक कि मन ही मन पति के रूप में वर भी लिया था । बात में और काम में ऐसा साम्य और कितनों में होता है कहिए ? आज प्रतीत हो रहा है जैसे, जन्मान्तर का भ्रमण करते हुए किसी पुरानी पृथ्वी पर आ गिरी हूँ । ‘
इन्द्रनाथ ने कहा था, उनकी बेटी अनीता बसु कटक आईं थीं, मैं उस समय छोटा था । उनके बारे में, सुभाषचन्द्र के बचपन के दिनों के बारे में बहुत सारे रिपोर्ट और तस्वीरें अखबारों में छपी थीं—मुझे याद है…..वैसे कटक उनको अपना बेटा ही मानता है ।
बेटी का प्रसंग छिड़ते ही वनश्री उदास हो गई, सच में अभी भी मासूमियत बाकी है, उसने कहा, पता है, एमिलि शेंकल, यह नाम सुनते ही मन में बहुत दु:ख होता है, अभी भी, इस तस्वीर में मेरा चेहरा भी तो हो सकता था…..है ना !
इन्द्रनाथ मुस्कुराने लगे । वनश्री जैसे मन ही मन सुभाषचन्द्र की नववधु बनकर इस भवन के फेरे ले रही थी । कभी बरामदे से निकल रही थी, सीढ़ीयों से चढ़ रही थी, उतर रही थी, इस कमरे में, उस कमरे में झांक रही थी ।
1880 के दशक में ही जानकीनाथ कटक चले आए थे । जिस वर्ष सुभाषचन्द्र पैदा हुए, उस समय कटक की आबादी केवल बीस हजार थी । जानकीनाथ की ख्याति पूरे शहर में फैल गई थी ।
-आपने क्या कहा, कटक का बेटा ? भौंहें सिकोड़कर वनश्री ने कहा था, क्यों, सुभाषचन्द्र बसु तो बंगाल के हैं , कटक के क्यों होने लगे ?
ऐसे द्वन्द अब अर्थहीन हैं, दोतल्ले के बरामदे में टेक लगाकर इन्द्रनाथ ने कहा था, यहां सिगरेट पीना असभ्यता होगी वरना सुलगा लेते । वनश्री की उत्तेजना उनको उनके किशोर वय के कटक शहर में ले जा रही थी। कटक शहर, अति मनोहर, धवल टगर* —–शिशुपाठ की वह कविता ।
सुभाष का जन्म यहाँ हुआ, लगभग सत्रह वर्ष तक, जिस समय काल में किसी के चरित्र का निर्माण होता है, उनका वह समय यहीं पर बीता था । तब क्या सुभाषचन्द्र उड़ीसा के नहीं हुए ? प्रेसिडेन्सी कालेज में दाखिले के बाद से वह बंगाल के हैं……..। वह उड़ीसा के हैं……यह कहकर मैं कोई प्रादेशिक संकीर्णता नहीं दिखा रहा,बल्कि ऐतिह्य का सटीक मूल्यांकन मांग रहा हूँ । यहाँ के जल,यहाँ की मिट्टी में ही उनकी चेतना के बीज का उन्मेष हुआ था—-आप इस बात को नकार पाएंगी वनश्री ?
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आई एन ए के 55 सैनिक, जो रंगून के जेल में कैद थे, वे सभी उड़िया थे । व्रजमोहन पटनायक, कृष्ण त्रिपाठी, कुमारी लक्ष्मी इन सबको आई एन ए में अकुंठ सम्मान और मर्यादा मिला है।
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सुभाष कभी भी कटक शहर और अपने विद्यालय को नहीं भूले थे । उन्होंने बाद में लिखा था—-मैंने अपने जीवन का श्रेष्ठ समय यहाँ बीताया है…….मैं उत्कल की संतान हूँ, मेरा हृदय वहीं बंधा है ।
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उपन्यास -महानदी
लेखिका-अनिता अग्निहोत्री
हिंदी अनुवाद -लिपिका साहा