24 जून वीरांगना महारानी दुर्गावती बलिदान दिवस पर विशेष….

गोंडवाना साम्राज्य की महारानी दुर्गावती जैसे पराक्रमी नारी विश्व में न तो किसी काल में रही और ना आगे होंगी

(लोक असर के लिए आर एन ध्रुव की कलम से)

LOK ASAR BALOD

भारत देश के मध्य में भोपाल क्षेत्र के दूर पूर्वी दक्षिण तटीय सागर की सीमा विशाखापट्टनम तक देश का सर्वाधिक शक्तिशाली गोंडवाना राज्य गढ़ा कटंगा मंडला का राज वंश विस्तार था। इस राजवंश काल प्रारंभ 169 ए डी में यदु राय मरावी से होकर सन 1779 ए डी घूमेश शाह तक रहा है ।

इस राजवंश के सबसे प्रतापी सम्राट संग्राम शाह 1478 ए डी में राजगद्दी पर बैठे एवं मात्र 32 वर्ष के काल में अपने भुजबल एवं शौर्य सामर्थ के सहारे 52 गढ़ों को जीता तथा उस समय भारत के धन बल, शौर्य एवं गोंड़वाना की शानदार परंपरा को धारण करने वाले भारतवर्ष में अजेय सम्राट माने जाते थे । उस काल में दिल्ली का बादशाह इब्राहिम लोदी भी गढ़ा कटंगा राजवंश से घबराता था । इसी कारण उसने संग्राम शाह से मित्रवत व्यवहार किया। गुलाम वंश और गढ़ा कटंगा का गोंडवाना वंश की मित्रता इतनी घनिष्ठ थी की राजपूताना के सारे राजा इधर ताकने की हिम्मत भी नहीं कर पाते थे। राजपूताना के ठाकुर राजा राणा सांगा दिल्ली के गद्दी पर कब्जा करना चाहता था ।परंतु इस अजेय मित्रों के कारण कभी भी हिम्मत नहीं कर सका था।अतः उसने मंगोल वंश तुर्क के राजा बाबर को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए न्योता दिया। सारे राजपूताना राजाओं के साथ दिल्ली पर आक्रमण किया और इस युद्ध में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली के गद्दी पर कब्जा किया। किंतु इस युद्ध के बाद भी राणा सांगा के दिल्ली की गद्दी दिवास्वप्न बन कर रह गई। इस तरह से मुगल वंश की स्थापना का श्रेय भी इन राजाओं को ही जाता है। इस युद्ध में हार का कारण बाबर का चलता फिरता तोपखाना था। यद्यपि संग्राम शाह ने युद्ध में इब्राहिम लोधी की मदद की थी । इस मदद के परिणाम स्वरुप बाद में अकबर का महारानी दुर्गावती के राज्य पर आक्रमण करने का कारण बना।


दिल्ली में लोधी वंश समाप्त हो गया और मुगल सल्तनत स्थापित हो गया किंतु इससे गोंडवाना के गढ़ा कटंगा राजवंश पर कोई आंच नहीं आई ।बाबरिया दिल्ली सल्तनत में या हुमायूं जो बाबर का पुत्र था उसने संग्राम शाह की ओर झांकने की हिम्मत नहीं दिखाई । शेरशाह सूरी ने तो हुमायूं को मात दी और काबुल कंधार तक उसे भगाकर गम दिया सन 1540 में काबुल में ही हुमायूं के बेटे अकबर का जन्म हुआ।

दिल्ली के सम्राट शेरशाह सूरी के कलिंजर युद्ध में आग लगने से मौत हो गई। इधर अकबर के मामा बैरम खान ने अच्छा मौका देख कर अपने भांजे अकबर को दिल्ली के खाली सिंहासन पर बिठाकर दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया अकबर जब दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तो उसका उम्र महज 13 वर्ष की थी ।वह सन 1554 में दिल्ली की गद्दी पर बैठा और उसके संरक्षण व सिपह सलाहकार उसके मामा बैरम खान थे। इस काल में दिल्ली सल्तनत की आर्थिक स्थिति काफी डावाडोल थी। सैकड़ों नए राजा पैदा हो गए थे ।किंतु चलाक बैरम खान ने दिल्ली राज्य के राजा को 1556 में पानीपत के युद्ध में हराकर अकबर के लिए निरापद दिल्ली का बादशाह बना दिए । इस प्रकार मुगल बादशाह मोहम्मद जलालुद्दीन अकबर देश के मुगलिया वंश के बादशाह से दिल्ली के बादशाह हो गए।
गोंडवाना के सम्राट संग्राम शाह एक महान योद्धा एवं न्याय प्रिय प्रशासक थे । वे स्वयं साहित्यकार भी थे। उनके द्वारा रचित दो पुस्तकें आज भी नागपुर के ग्रंथालय में है।

24 जून 1564 निश्चित ही गोंडवाना के मातृशक्ति का सारे विश्व में इतिहास के पन्नों पर अनुपमेय शहीद गाथा का यादगार दिन है। गोंडवाना में सोने की सिक्का चलाने वाली गोंडवाना के मरावी साम्राज्य की महारानी दुर्गावती जैसी पराक्रमी नारी सारे विश्व में ना तो किसी काल में रही है और ना आगे कभी होगी।

इतिहासकार डब्ल्य एच सलीमैन के शब्दों में गोडवाना राज्य की महारानी दुर्गावती ने सारे साम्राज्य का प्रशासन इतने कुशलता से किया कि सारे राष्ट्र में ऐसा उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। महारानी दुर्गावती के विषय में जबलपुर का गजेटियर लिखता है 1909 का शासकीय रिकॉर्ड इसके पूर्व ऐसी वीरांगना नारी का जन्म इस पृथ्वी पर नहीं हुआ।

‘‘ठांव बाहा खा सब थावे हैं, उनका चौरा।”
“हाथ जोड़त होए फरकत लगबे खौरा।”
बुंदेलखंडी गोंडी प्रथा में शहीदों की समाधि पर पत्थर चढ़ाए जाते हैं ।तब महारानी के समाधि पर पत्थर चलाते समय पत्थर भी शौर्य से फड़कने लगते हैं ।अर्थात महारानी की शौर्य गाथा से प्रेरणा पाकर निर्जीव पत्थर भी फड़कने लगते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य में दो नदियां नर्मदा एवं ताप्ती विश्व की सर्वश्रेष्ठ एवं अति पावन नदियां हैं । गंगा नदी तो शंभू महाराज के साथ जुड़ी है। किंतु नर्मदा नदी तो स्वयं शंभू ही है
जहां नर्मदा नदी का उद्गम स्थल अमरकंटक है। इस क्षेत्र को विश्व में प्रथम मानव उत्पत्ति का स्थल भी माना गया है ।यहीं पर सर्वप्रथम गोंडवाना की संस्कृति पनपी। सारे भूभाग पर विस्तारित हो गई । इस नर्मदा नदी के पावन तट पर नरसिंहपुर जिले में एक उइके राजवंश था इस उइके राजवंश के यहां अति सुंदर कन्या का जन्म हुआ। जिनका कुल देवता बाघ था। बाघ अर्थात शेर। कुलदेवता बाघ का प्रताप इस कन्या में झलकता था। धीर–गंभीर –शौर्य गुणों का अद्भुत संगम उईके खानदान के इस कन्या में किशोरावस्था के आने पर स्पष्ट झलक ने लगा था। तीर कमान, खंडा चलाने और हाथी, घोड़ों को प्रभावी ढंग से हांकने, नियंत्रण करने का कौशल इस कन्या में प्रशिक्षण के दौरान अच्छी तरह से आ गया था ।साथ ही इस कन्या में अनुपम सौंदर्य के साथ संस्कृति एवं कला– साहित्य का भी अत्यधिक ज्ञान था ।यही कन्या उईके वंश की राजकुमारी दुर्गावती थी। आज भी नरसिंहपुर के दक्षिण क्षेत्र में उईके जमींदार के महल के खंडहर विद्यमान हैं। यहां के निवासी मंडला के राजवंश के एक भाग के हिस्सेदार अंग रहे हैं । गोंडवाना के महान सम्राट संग्राम शाह के राज रंजनी पुस्तक के एक उदाहरण में इस राजवंश का जिक्र भी है।

दूसरी तरफ संग्राम शाह के सुपुत्र राजकुमार दलपत शाह मंडला एवं जबलपुर के राजमहल में राज्य प्रशासन, सैन्य प्रशासन, अर्थ प्रशासन की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। राजकुमार दलपत शाह को शिकार करने का भी शौक था। वह भी तीर –कमान एवं खंडा, तलवार चलाने की विद्या में प्रवीण थे। पूरे मंडला, जबलपुर एवं बालाघाट के क्षेत्रों में बाघों की सबसे अधिक संख्या थी । किंतु इन्हीं के राज्य के उईके जमीदारी में बाघों के शिकार पर प्रतिबंध था। एक बार युवराज दलपत शाह शिकार करने अपने सैन्य टुकड़ी के साथ जबलपुर मंडला होते हुए नरसिंहपुर के क्षेत्र में पहुंचे। नर्मदा नदी तट के पास एक मैदानी क्षेत्र था। उन्होंने वहां पर जो देखा अचंभित होकर रह गया । कुछ युवतियां आपस में शस्त्राभ्यास कर रही थी। एक अत्यंत सुंदर युवती के कुशल खंडा तलवार चालन को देखकर वे अवाक हो गए। युवती दोनों हाथों से दो तलवार चला रही थी। तलवारबाजी के ऐसा हुनर एवं पैतरों को तो प्रवीण योद्धा ही कर पाते हैं। किंतु यह युवती तो अपने पांचों सहेलियों पर भारी पड़ रही थी। युवराज दलपत शाह ने ऐसा शस्त्र कौशल देखा तो अनायास ही उनके मुंह से वाह – वाह निकल गया और यह आहट पाकर युवतियां रूक गई। सामने एक सेना की टुकड़ी को देखकर सभी युवतियां आक्रमक मुद्रा रूप में आ गई।
कौन हो आप लोग किस कारण से क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हो , तब युवराज के मित्र आधार सिंह ने उत्तर दिया कि हम निकट राज्य मंडला से आए हैं और आखेट के निमित्त से यहां तक पहुंच गए हैं। आप हमसे भयभीत ना हो ।संग्राम शाह के राज्य में सभी निरापद हो । किंतु हमारे युवराज आपके युद्ध कौशल से अत्यधिक प्रभावित हुए हैं। तब उन सहेलियों के प्रमुख सदस्यों ने निर्भीक होकर कहा कि महोदय आप में से युवराज कौन हैं, हमें ज्ञात नहीं। किंतु आप से निवेदन है यहां बाघ का शिकार करना वर्जित है । मृग या चीतल से आपको संतुष्ट होना पड़ेगा ।अन्यथा….
युवराज इस युवती की निर्भरता से प्रभावित हो गए और युवती का दैदीप्यमान सौंदर्य उनके हृदय को परास्त कर चुका था । तब युवराज ने आधार सिंह से कहा इस युवती का परिचय ज्ञात करो अतः उन्हें ही निवेदन किया जाए । उईके राज्य की यही राजकुमारी कालांतर में साम्राज्य महारानी दुर्गावती कहलाई।
विवाह सिंगौरगढ़ में संपन्न हुआ। मुंह दिखाई में सम्राट संग्राम शाह ने अपनी बहू को सिंगौरगढ़ का किला भेट दे दिया। मंडला राजवंश के लिए महारानी दुर्गावती के रूप में कुलवधू को पाकर साम्राग्यी पद्मावती भी अत्यंत प्रसन्न थी। इसके पीछे अनेक कारण रहे हैं ।महारानी दुर्गावती का अतुलनीय सौंदर्य, साहित्य एवं संस्कृति में रुचि, युद्ध कौशल का पूर्ण ज्ञान, शस्त्र संचालन में महारत,विविध कलाओं में रुचि थी।

आज भी जबलपुर के निवासियों में महारानी दुर्गावती के लिए अपार श्रद्धा है ।उनमें यह जन श्रुति है कि महारानी जी अत्यंत श्रेष्ठ तैराक थी। उन्हें बाल्यकाल से ही नर्मदा नदी में तैरना भाता था। एक बार अफगान सैनिकों ने उन्हें अकेले तैरता पाकर उन्हें बाहर निकलने का इंतजार किया। किंतु महारानी नर्मदा नदी में भीतर ही भीतर तैर कर अपने मंडला महल पहुंच गई। जबलपुर के नागरिक मानते हैं उन्हें नर्मदा नदी और महल की किसी सुरंग का भी ज्ञान था।

उनके साहित्य और संस्कृति का उनकी सास पद्मावती जी बेहद कायल थी। एक बार प्रसन्न होकर कुलवधू को वरदान मांगने का जिक्र भी किया । तब महारानी दुर्गावती ने सारे मंडला राज्य में शेरों का वध नहीं करने का आशीर्वाद मांगा था। यही कारण है कि आज भी देश में सर्वाधिक बाघों की संख्या मंडला बालाघाट की जंगलों के आसपास सर्वाधिक है। मात्र एक वर्ष की अवधि में ही महारानी दुर्गावती ने राज्य प्रशासन की प्रत्येक जानकारी हासिल कर ली थी ।जन श्रुति में जबलपुर के निवासी बतलाते हैं कि उईके राजवंश मात्र 2000 हलो की जोत के बराबर था। अतः उनके पास घोड़े ही थे तब घुड़सवारी उन्हें बहुत अच्छी तरह से आती थी। उइके राजवंश में हाथियों का नहीं होने के कारण उन्हें हाथियों के संचारण का ज्ञान नहीं था। किंतु मात्र छह माह की संक्षिप्त अवधि में उन्होंने हाथियों के संचालन में दक्षता प्राप्त करने के साथ ही हाथियों को युद्ध में किस प्रकार उपयोग किया जाता है। उसमें भी महारत हासिल कर ली थी।

महारानी दुर्गावती जी के विषय में एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि वे दो तलवारों को एक साथ चलाती थी।इस विषय में यह तर्क दिया जाता है की चूंकि वे बाल्यकाल से नर्मदा नदी के तट पर रहती थी और उन्हें तैरने में प्रावीण्यता हासिल थी। जिन्हें नर्मदा के प्रवाह की तीव्रता का अनुमान है वे अच्छी तरह से जानते हैं कि पहाड़ों से उतरती नर्मदा नरसिंहपुर के क्षेत्र में कितनी अधिक तीव्र होती है। साधारण शक्ति का व्यक्ति इसमें कठिनाई अनुभव करेगा। किंतु इन्होंने तैरने के हुनर को दोनों हाथों से प्रयुक्त करना सीख लिया था। यही कारण है कि वे सहज ही बड़ी चंचलता के साथ दोनों हाथों से एक साथ तलवार भांज सकती थी। इसी प्रकार तीरंदाजी मे वे लक्ष्य संधान के लिए दोनों हाथों को एक समान रूप से उपयोग कर सकती थी।

जबलपुर के निवासी बड़े गर्व से उनके उस हुनर की चर्चा करते हुए कहते हैं कि हमारी महारानी जी ने कहा था समीप के लक्ष्य के लिए तीर पर बायाँ हाथ और धनुष पर दाहिना हाथ अच्छा होता है। और दूर के लक्ष्य के ठीक इसके विपरीत इस उदाहरण से ज्ञात होता है कि महारानी दुर्गावती में रण कौशल कितना कूटण–कूट के भरा था।

एक वारिस जन्म देने के बाद असाध्य रोग से सम्राट दलपत शाह की मृत्यु हो गई। महारानी दुर्गावती ने अपने पुत्र वीर नारायण सिंह को बड़े कुशलता से पाला एवं बड़ा किया और चौरागढ़ के किले का किल्लेदार बनाया। जिस समय दुर्गावती जी विधवा हुई तब साम्राज्ञी पद्मावती की भी मृत्यु हो गई थी। राज्य के सारे प्रशासन का भार उन्हीं के ऊपर आ गया । अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ उनके प्रशासन के विषय में लिखते हैं कि महारानी दुर्गावती के प्रशासन का प्रबंधन इतनी कुशलता से उन्होंने किया था कि प्रजा को कभी सम्राट संग्राम शाह और सम्राट दलपत शाह की कमी महसूस नहीं हुई ।

कड़ा मानिकपुर के सरदार आसफखां जो 20000 फौज के सरदार थे। बैरम खां के आदेश पर युद्ध करने आए। महारानी दुर्गावती ने इन्हें तीन बार परास्त कर दिया। 24 जून को नरई नाला में बाढ़ आने के कारण महारानी दुर्गावती जी मात्र 50 सैनिकों के साथ नरई नाला के उस पार रह गई थी। शेष विशाल सेना को आसिफ खान ने मौका देखा और अपनी 18000 सेना के साथ इस वीरांगना पर हमला कर दिया।
घायल सिंहनी ने कहा कि मेरा अंत निकट है मेरी लाश शत्रु के हाथ नहीं आनी चाहिए और अपने पेट में कटार घोंपकर शहीद हो गई। किंतु देश के इतिहास में गोंड़वाना का नाम अजर अमर कर गई।

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