संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द
मैंने सुना है, कृष्ण भोजन करने बैठे हैं और रुक्मणि उन्हें पंखा झल रही है। अचानक वे थाली छोड़कर उठ खड़े हुए और द्वार की तरफ भागे। रुक्मणि ने पूछा ”क्या हुआ है? कहां भागे जा रहे हैं?” लेकिन, शायद उन्हें इतनी जल्दी थी कि वे उत्तर देने को भी नहीं रुके, द्वार तक गये भागते हुए, फिर द्वार पर जाकर रुक गये। थोड़ी देर में लौट आये और भोजन करने वापस बैठ गये।
रुक्मणि ने कहा, ‘मुझे बहुत हैरानी में डाल दिया आपने। एक तो उठकर भागे बीच भोजन में और मैंने पूछा तो उत्तर भी नहीं दिया। फिर द्वार तक जाकर वापस भी लौट आये! क्या था प्रयोजन?
कृष्ण ने कहा, ‘बहुत जरूरत आ गयी थी। मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा था। राजधानी के लोग उसे पत्थर मार रहे थे। उसके माथे से खून बह रहा था। उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया था। भीड़ उसे घेरकर पत्थरों से मारे डाल रही थी और वह खड़ा हुआ गीत गा रहा था। जरूरत पड़ गयी थी कि मैं जाऊं, क्योंकि वह कुछ भी नहीं कर रहा था। वह बिलकुल बेसहारा खड़ा था। मेरी एकदम जरूरत पड़ गयी।’
रुक्मणि ने पूछा, ”लेकिन आप द्वार तक जाकर वापस लौट आये?’
‘कृष्ण ने कहा कि ”जब तक मैं द्वार तक पहुंचा, तब सब गड़बड़ हो गयी। वह आदमी बेसहारा न रहा। उसने पत्थर अपने हाथ में उठा लिये। अब वह खुद ही पत्थर का उत्तर दे रहा है। अब मेरी कोई जरूरत नहीं है। इसलिये मैं वापस लौट आया हूं। अब उस आदमी ने खुद ही अपना सहारा खोज लिया है।
यह कहानी सच हो कि झूठ, लेकिन एक बात मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि जिस दिन आदमी बेसहारा हो जाता है, उसी दिन परमात्मा के सारे सहारे उसे उपलब्ध हो जाते हैं।
लेकिन हम इतने कमजोर हैं, हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम कोई न कोई सहारा पकड़े रहते हैं। और जब तक हम सहारा पकड़े रहते हैं, तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं हो सकता है।
