संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द
एक अंधा फकीर विदा हो रहा था अपने गुरु से। रात अंधेरी थी। और उसने कहा कि रात अंधेरी है और जाने में मुझे डर लगता है, जंगल का रास्ता है। मैं अंधा आदमी, रात अंधेरी है! गुरु ने कहा, घबड़ाओ न; मैं एक दीया जला देता हूं। यह दीया ले लो और चल पड़ो। गुरु ने दीया जला दिया, अंधे के हाथ में दे दिया और अंधा जब सीढ़ियां उतर रहा था तब गुरु ने दीया फूंककर बुझा दिया। अंधे ने कहा, यह भी खूब मजाक हुई! फिर जलाया ही क्यों था जब बुझाना था? गुरु ने कहा, तुम्हें याद दिलाने को। मेरा जलाया हुआ दीया बाहर के अंधेरे में तो काम आ जाएगा, मगर बाहर के अंधेरे को तोड़ना—न तोड़ना सब बराबर है! भीतर के अंधेरे को तोड़ने में मेरा जलाया दीया काम नहीं आएगा। और खतरे वहां हैं। बाहर क्या खतरा है! खतरे तुम्हारे भीतर हैं—वासनाओं का, विचारों का जंगल तुम्हारे भीतर है। हिंसा के, क्रोध के, वैमनस्य के जानवर तुम्हारे भीतर हैं। खतरा उनसे है, मेरे भाई! बाहर के जानवर क्या करेंगे? ज्यादा—से—ज्यादा देह को छीन लेंगे। सो देह फिर मिल जाएगी। अनंत बार मिली है, अनंत बार मिलती रहेगी। और भीतर मेरा जलाया दीया काम नहीं आ सकता।
इस सदगुरु का दीया का बुझाना और ऐसा कहना और उस अंधे फकीर की भीतर की आंखें खुल गईं। वह हंसा, झुका, चरण छुए और उसने कहा, आपने भी खूब समय पर मुझे जगाया! रात कट गई, सुबह हो गई। अब मैं निश्चिंत जाता हूं। अब न मेरी मृत्यु है, अब न मेरा अंत है, अब न कोई भय है, अब न कोई जंगल है।
एक शराबी एक रात लौटा। जब गया था शराबघर तो लालटेन लेकर गया था। इस डर से कि लौटते—लौटते देर हो जाएगी और अंधेरी रात है। जब लौटा तो अपनी लालटेन उठाई और चल पड़ा। डगमगाते पैर, रास्ते पर खड़ी भैंस से टकरा गया, ट्रक से टकरा गया, नाली में गिर पड़ा…बड़ा हैरान! बीच—बीच कभी—कभी झोंका शराब का उतरे थोड़ा तो खयाल आए कि मामला क्या है, लालटेन मेरे हाथ में है, तो मैं टकराता क्यों हूं? तो रोशनी का हुआ क्या? फिर रोशनी का सार क्या है? अपने घर क्यों नहीं पहुंच पाता हूं? सुबह किसी ने उसे बेहोश वहां पड़ा देखा तो उठाकर घर पहुंचाया। दोपहर तक उसे होश आया।
शराबघर का मालिक दोपहर आया उसकी लालटेन लेकर और शराबी को कहा कि भाई, यह लालटेन तुम अपनी सम्हालो; रात तुम भूल से तोते का पिंजड़ा उठा कर चल दिए! अब बेहोश आदमी को क्या पता—क्या तोते का पिंजड़ा है, क्या लालटेन? तोते का पिंजड़ा उठाया होगा, समझ में आया कि चलो लालटेन उठा ली; चल पड़ा। और तोते के पिंजड़े से रोशनी नहीं मिलती।
जब तक तुम मूर्च्छित हो, तब तक तुम्हारे हाथों में तोतों के पिंजड़े हैं! फिर तुम उन्हें चाहे वेद कहो, गीता कहो, धम्मपद कहो, कुरान कहो, जो तुम्हें कहना हो, मगर वे तोते के पिंजड़े हैं। तुम्हारी बेहोशी के कारण तुम्हारे हाथ में लालटेन हो ही नहीं सकती। लालटेन हो तो बेहोशी नहीं हो सकती। और फिर कोई तुम्हें दे भी दे…मैं तुम्हें दीया दे भी दूं और समझो कि उस गुरु जैसा बुझाऊं भी न, तो भी कितनी देर तुम उस दीए को सम्हाल सकोगे?
