संकलन एवम् प्रस्तुति/मक्सिम आनन्द
एक आदमी था, शेख अब्दुल्लाह उसका नाम। उसके बारह लड़के हुए।
उसने सभी का नाम अब्दुल्लाह जैसा रखा। ऐसे नाम रखे जो अल्लाह पर पूरे होते हैं। किसी का रहीमतुल्लाह, किसी का हिदायतुल्लाह–इस भांति। फिर उसका तेरहवां बच्चा पैदा हुआ। तब वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। सब नाम चुक गये, जो अल्लाह पर पूरे होते थे। तो वह मुल्ला नसरुद्दीन के पास गया। भाग्य से मैं मौजूद था उस शुभ घड़ी में। और उसने कहा नसरुद्दीन से, ‘बड़े मियां! तेरहवां लड़का पैदा हुआ, अल्लाह में पूरे होते किसी नाम का सुझाव दें; मैं तो थक गया खोज-खोज कर। सब नाम चुक गये।’
नसरुद्दीन ने बिना झिझके आकाश की तरफ देखा और कहा, ‘तुम उसका नाम रखो, बस कर अल्लाह!’
जब तुम्हारे जीवन में ऐसी घड़ी आ जाये जब तुम कह सको, ‘बस कर अल्लाह’, तभी धर्म का प्रारंभ है। अभी तुम थके नहीं। अभी तुम अल्लाह से भी कुछ झूठ चलाना चाहते हो। अभी तुम्हारी प्रार्थना भी संसार का अंग है। अभी तुम्हारी पूजा भी धन के, प्रतिष्ठा के, यश के सामने ही चल रही है।
अभी तुम मंदिर भी जाते हो तो मांगने; देने नहीं।और परमात्मा के द्वार पर वही पहुंच पाता है जो देने गया है, मांगने नहीं। भिखमंगों की वहां कोई जगह नहीं है।भिखारी हो कर उस परम-सम्राट से तुम मिलोगे भी कैसे? उस जैसा ही होना पड़ेगा। कुछ तो सम्राट जैसे हो जाओ? उसी अंश में तुम परमात्मा जैसे हो जाओगे।मांगती हुई प्रार्थनायें उस तक नहीं पहुंचतीं। सिर्फ देनेवाली, अपने को देनेवाली प्रार्थनायें उस तक पहुंचती हैं।
कभी हाथ उठाओ आकाश की तरफ और कहो, ‘बस कर अल्लाह!’ रुको, बहुत दुख झेला। झेल-झेल कर तुम इतने आदी हो गये हो दुख के कि अब वह दुख जैसा मालूम भी नहीं पड़ता। तुम्हारी बुद्धि भी संवेदनशून्य हो गई है। बहुत नर्क में भटके, लेकिन इतने आदी हो गये हो कि अब तुम्हें भरोसा भी नहीं आता है कि कोई स्वर्ग हो सकता है।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि खोये भरोसे को जो जगा दे। और तुम्हें उस पीड़ा के मार्ग से गुजार दे साथ दे कर, जहां तुम अकेले न गुजर सकोगे। फिर जैसे ही संताप का क्षण गुजर जाता है, प्रकाश का क्षण आता है, गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सदगुरु तुम्हें तुम्हारे भीतर के गुरु से मिला देता है।
