दमन से कभी कोई फर्क नहीं आता, लेकिन दमन से चीजें…

संकलन एवम् प्रस्तुति/मक्सिम आनन्द

मैंने सुना है, एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी रहता था। वह इतना क्रोधी था कि एक बार उसने अपनी पत्नी को धक्का देकर कुएं में गिरा दिया था। जब उसकी पत्नी मर गयी और उसकी लाश कुएं से निकाली गयी तो वह क्रोधी आदमी जैसे नींद से जग गया। उसे लगा कि उसने जिंदगी में सिवाय क्रोध के और कुछ भी नहीं किया। उसे बहुत पश्‍चाताप हुआ।

उस गांव में एक मुनि आये हुए थे। वह उनके दर्शन को गया और उनके चरणों में सिर रखकर बहुत रोया। उसने कहा, ‘‘मैं इस क्रोध से कैसे छुटकारा पाऊं? क्या रास्ता है? मैं कैसे इस क्रोध से बचूं?’

मुनि ने कहा, ‘‘तुम संन्यासी हो जाओ। छोड़ दो वह क्रोध, जिसे कल तक तुम पकड़े थे।

लेकिन मजा यह है कि जिसे छोड़ो, वह तुम्हे और भी मजबूती से पकड़ लेता है। लेकिन यह थोड़ी गहरी बात है, एकदम से समझ में नहीं आती।

वह आदमी एकदम से संन्यासी हो गया। उसने अपने वस्त्र फेंक दिये और नंगा हो गया। उसने कहा, ‘मुझे दिक्षा दें, मैं शिष्य हुआ।”

मुनि बहुत हैरान हुए। बहुत लोग उन्होंने देखे थे, पर ऐसा संकल्पवान आदमी नहीं देखा था, जो इतनी शीघ्रता से संन्यासी हो जाये। उन्होंने कहा, ‘‘तू तो अदभुत है तेरा संकल्प महान है। तू इतना तीव्रता से संन्यासी होने को तैयार हो गया है, सब छोड़कर?

लेकिन उन्हें भी पता नहीं कि यह भी क्रोध का ही दूसरा रूप है। वह आदमी, जो कि अपनी पत्नी को क्रोध में आकर एक क्षण में कुएं में धक्का दे सकता है, वह क्रोध में आकर एक क्षण में नंगा भी खड़ा हो सकता है, संन्यासी भी हो सकता है, इन दोनों बातों में विरोध नहीं है। यह एक ही क्रोध के दो रूप हैं।

तो वे मुनि बहुत प्रभावित हुए उससे। उन्होंने उसे दीक्षा दे दी और उसका नाम रख दिया-मुनि शांतिनाथ। अब वह मुनि शांतिनाथ हो गया। और भी शिष्य थे मुनि के, लेकिन उस शांतिनाथ का मुकाबला करना बहुत मुश्किल था, क्योंकि उतने क्रोध में उनमें से कोई भी नहीं था। दूसरे शिष्य दिन में अगर एक बार भोजन करते तो शांतिनाथ दो दिन भोजन ही नहीं करते थे। क्रोधी आदमी कुछ भी कर सकता है!

दूसरे अगर सीधे रास्ते से चलते, तो मुनि शांतिनाथ कांटों से भरे रास्ते पर चलते! दूसरे शिष्‍य अगर छाया में बैठते, तो मुनि शांतिनाथ धूप में ही खड़े रहते! थोड़े ही दिनों में मुनि शांतिनाथ का शरीर सुख गया, कृश हो गया, काला पड़ गया, पैर में घाव पड़ गये। लेकिन चारो और उनकी कीर्ति फैलनी शुरू हो गयी, कि मुनि शान्तिनाथ महान तपस्वी हैं।

वह क्रोध ही था, जो अब स्वयं पर लौट आया था। जो क्रोध, अब तक दूसरों पर प्रगट होता रहा था, अब वह उतना ही खुद पर ही प्रगट हो रहा था।

अब उसने दूसरों को सताना बन्द कर दिया, अब वह अपने को ही सता रहा था। और पहली बार एक नयी घटना घटी थी कि दूसरों को सताने पर लोग उसका अपमान करते थे, पर अब खुद को सताने से लोग उसका सम्मान करने लगे थे। अब लोग उसे महातपस्वी कहने लगे थे!

मुनि की कीर्ति सब ओर फैलती गयी। जितनी उसकी कीर्ति फैलती गयी, वह अपने को उतना ही सताने लगा, अपने साथ दुष्टता करने लगा। जितनी उसने स्वयं से दुष्टता की, उतना ही उसका सम्मान बढ़ता चला गया। दो-चार वर्षों में गुरु से ज्यादा उसकी प्रतिष्ठा हो गयी।

फिर वह देश की राजधानी में आया। मुनियों को राजधानी में जाना बहुत जरूरी होता है। अगर आप मुनियों को देखना चाहते हो, तो हिमालय पर जाने की कोई जरूरत नहीं है, देश की राजधानी में चले जाइए। वहां सब मुनि, सब संन्यासी अड्डा जमाये हुए मिल जायेंगे।

वे मुनि भी राजधानी की तरफ चले। राजधानी में पुराना एक मित्र रहता था। उसे खबर मिली तो वह बहुत हैरान हुआ कि जो आदमी इतना क्रोधी था, वह शांतिनाथ हो गया! जाऊं, दर्शन कर आऊं।

वह मित्र दर्शन करने आया। मुनि अपने तख्त पर सवार थे। उन्होंने मित्र को देख लिया, पहचान भी गये। लेकिन जो लोग तख्त पर सवार हो जाते हैं, वे कभी किसी को आसानी से नहीं पहचानते; क्योंकि पुराने दिनों के साथी को पहचानना ठीक भी नहीं होता। वह भी कभी वैसे ही रहे हैं, इसका पता चल जाता है।

आदमी ऊपर चढ़ता ही इसलिए है कि जो पीछे छूट जाये, उनको पहचाने न। जब बहुत से लोग उसको पहचानने लगते हैं, तो वह सबको पहचानना बंद कर देता है। पद के शिखर पर चढ़ने का रस ही यही है कि उसे सब पहचानें, लेकिन वह किसी को नहीं पहचाने।

मित्र पास सरक आया और उसने पूछा कि ‘‘मुनि जी क्या मैं पूछ सकता हूं- आपका नाम क्या है?” मुनि जी को क्रोध आ गया। ‘‘क्या अखबार नहीं पढ़ते? रेडियो नहीं सुनते? मेरा नाम पूछते हो? मेरा नाम जग-जाहिर है, मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है।”

उनके बताने के ढंग से मित्र समझ गया कि कोई बदलाहट नहीं हुई है। आदमी तो वही का वही है, सिर्फ नंगा खड़ा हो गया है।

दो मिनट दूसरी बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछा, ‘‘महाराज, मैं भूल गया-आपका नाम क्या है?” मुनि की आंखों से तो आग बरसने लगी। उन्होंने कहा- ‘‘मूढ! नासमझ! इतनी जल्दी भूल गया। अभी मैंने तुझसे कहा था, मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है।”

दो मिनट तक फिर दूसरी बातें चलती रहीं। फिर उसने पूछा कि ‘‘महाराज, मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?” मुनि ने डंडा उठा लिया और कहा, ‘‘चुप नासमझ! तुझे मेरा नाम समझ में नहीं आता? मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ।”

उस मित्र ने कहा, अब सब समझ गया हूं। सिर्फ वही समझ में नहीं आया, जो मैं पूछता हूं। अच्छा नमस्कार! आप वही के वही है, कोई फर्क नहीं पड़ा।



दमन से कभी कोई फर्क नहीं आता, लेकिन दमन से चीजें स्वप्‍न बन जाती हैं। और स्वप्‍न बन जाना बहुत खतरनाक है क्योंकि बदली हुई शक्ल में उनको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।

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