उस शूद्र ने ऐसी स्थिति खड़ी कर दी कि आदिशंकराचार्य को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी…

संकलन एवम् प्रस्तुति/मक्सिम आनन्द

शंकराचार्य वाराणसी में थे।

एक दिन, सुबह-सुबह--अभी अंधेरा ही था, क्योंकि हिन्दू पंडित सूरज उगने से पहले ही नहा लिया करते हैं--उसने स्नान किया। और जब वो सीढ़ियों से ऊपर आ ही रहा था, एक आदमी ने उसको छू लिया और ऐसा गलती से नहीं हुआ था यह उसने जानबूझ कर किया था, "क्षमा करें मैं शूद्र हूं, आप को गलती से छू लिया परंतु अब आप को स्वच्छ होने के लिए दौबारा स्नान करना होगा।"

शंकराचार्य क्रोधित हो गए। वे बोले, "यह तुमसे गलती से नहीं हुआ, जिस तरीके से तुमने ऐसा किया; उससे साफ़ पता चलता है कि यह तुमने जान-बूझ के किया था। तुम्हे नरक भोगना होगा।"

  वह व्यक्ति बोला, "जब सब-कुछ माया है, तो लगता है अवश्य ही नरक सत्य होगा।" शंकराचार्य तो यह सुन कर स्तभ्ध रह गए।

  वह व्यक्ति बोला, "इससे पहले कि तुम स्नान करने जाओ, तुम्हे मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। यदि तुमने मेरे उत्तर नहीं दिए तो अब जब भी तुम स्नान कर के आओगे मैं तुम्हारा स्पर्श कर लूंगा।"

  उस समय वहां एकांत था, सिवाय उन दोनों के कोई नही था, तो शंकराचार्य ने कहा, "तुम बड़े अजीब व्यक्ति हो। क्या हैं तुम्हारे प्रश्न?"

  उसने कहा, "मेरा पहला प्रश्न है: क्या मेरा शरीर भ्रम है? क्या आपका शरीर भ्रम है? और यदि दो भ्रम शरीर एक दुसरे का स्पर्श कर लेते हैं तो, इसमें आपत्ति क्या है? क्यों आप एक और स्नान लेने के लिए जा रहे हो? जो उपदेश आप देते हो उसका पालन स्वयं ही नहीं करते । एक माया के जगत में, क्या एक अछूत और ब्राह्मण में कोई भेद हो सकता है?- पवित्र और अपवित्र में ?--जब दोनों ही भ्रम हैं, जब दोनों उसी एक तत्व के बने हो जिनके सपने बने होते हैं? तब कैसा उपद्रव?"

शंकराचार्य, जो कि बड़े-बड़े दार्शनिको को पराजित कर रहे थे, इस सरल से व्यक्ति को कोई उत्तर नहीं दे पाए क्योंकि जो भी उत्तर वे देते वो उनके खुद के दर्शन के विरुद्ध होता। यदि वे कहते हैं कि यह भ्रम है, तब इसमें क्रोधित होने जैसा कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि वे कहते कि ये सत्य है, तब वे इस तथ्य को स्वीकार करते कि शरीर सत्य है… पर तब एक समस्या है। यदि मनुष्य का शरीर सत्य है, तब पशुओं का शरीर, पेड़ो का शरीर, ग्रहों का शरीर, सितारों… सब सत्य है।

और उस व्यक्ति ने कहा, "मैं इस बात से अवगत हूं की आपको इसका उत्तर नहीं पता--यह आपके सारे दर्शनशास्त्र को नष्ट कर देगा। 

मैं आपसे एक और प्रश्न करता हूं: मैं एक शूद्र हूं, अछूत हूं, अपवित्र हूं, मेरी अपवित्रता कहां है--मेरे शरीर में या कि मेरी आत्मा में? मैंने आपको यह घोषणा करते सुना है कि आत्मा पूर्ण और शाश्वत रूप से पवित्र है, और उसे अपवित्र करने का कोई उपाय नहीं है; तो दो आत्माओं के बीच भेद कैसे हो सकता है? दोनों ही पवित्र हैं, पूर्णता, पवित्र और अपवित्रता की कोई सीमा नहीं होती--कि कोई ज्यादा पवित्र हो और कोई कम। तो हो सकता है कि मेरी आत्मा ने आपको अपवित्र कर दिया है और आपको दूसरा स्नान करना पड़ रहा है?

अब यह और भी कठिन था।

लेकिन वह कभी भी इस तरह के परेशानी में नहीं पड़ा था-- यथार्थ, वास्तविक, एक तरह से वैज्ञानिक। बजाय शब्दों से तर्क करने के, उस शूद्र ने ऐसी स्थिति खड़ी कर दी कि अदि शंकराचार्य को अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी।

और शूद्र ने कहा, "तो आपको दुबारा स्नान करने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी वहां कोई नदी नहीं है, मैं भी नहीं, आप भी नहीं; सब स्वप्न ही तो है। आप मंदिर में जाएं--और वह भी एक स्वप्न है--और परमात्मा से प्रार्थना करें, वह भी एक स्वप्न है।

  क्योंकि वह भी मन द्वारा खड़ा किया हुआ एक प्रक्षेपण है जो कि भ्रम है, और एक भ्रमित मन कुछ भी सत्य प्रक्षेपित नहीं कर सकता।

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