संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक बहुत पुरानी कहानी है कि एक शतपदी, सौ पैरों वाला जानवर राह से गुजर रहा है। एक खरगोश बड़ा हैरान हुआ, बड़ी जिज्ञासा से भर गया कि सौ पैर ! कौन सा पहले उठाता होगा? फिर कौन सा पीछे उठाता होगा? और सौ का हिसाब रखना, और फिर चलना भी। यह तो बड़ा जीता-जागता गणित है। उसने कहा, रुको भई, एक सवाल का जवाब दे दो। सौ पैर ! इनमें तुम कौन सा पहले उठाते हो? और डगमगाते भी नहीं। लड़खड़ाते भी नहीं। ऐसा भी नहीं कि चार-दस इकट्ठे उठा दिए और गड़बड़ा गए और गिर गए। और सौ पैर का मामला! तुम कौन सा पहले उठाते हो? कौन सा पीछे उठाते हो? क्या तुम्हारा क्रम है? गणित क्या है इसका?
तब तक शतपदी ने भी कभी सोचा नहीं था। चलता रहा था, सोचा किसने। जन्म से, जब से होश पाया था, चल ही रहा था, कभी सवाल उठा हो न था ।उसने भी कहा कि यह तो बड़ा सवाल उठा दिया। उसने नीचे झांक कर देखा, खुद भी घबड़ा गया-सौ पैर! संख्या भी नहीं आती इतनी तो उसको। उसने कहा, भई, अभी तक मैंने सोचा नहीं। अब तुमने सवाल उठा दिया तो मैं सोचूंगा, परीक्षण करूंगा, निरीक्षण करूंगा और देख कर तुम्हें जल्दी हो खबर दूंगा। लेकिन फिर वह चल न सका। वह एक कदम चला और खड़बड़ा कर गिर गया। सौ पैर सम्हालने का मामला आ गया था। जान छोटी, सौ पैर। बुद्धि छोटी और सौ पैर ! उतना बड़ा हिसाब न लगा सका, वह वहीं खड़बड़ा कर गिर पड़ा।
उसने कहा, नासमझ खरगोश, तूने मेरी मुसीबत कर दी। अब मैं कभी भी न चल सकूँगा; क्योंकि यह सवाल मेरा पीछा करेगा। अब तक मैं चलता था। जैसे ही तुम अपने अहं के प्रति सजग होते हो चीजें गड़बड़ हो जाती है क्योंकि बुद्धि बीच में आ गयी। जीवन तुम्हारी बुद्धि से बड़ा है। और जब भी तुम बुद्धि का उपयोग करते हो, वहीं अड़चन आ जाती है। जीवन तुमसे बहुत बड़ा है, बुद्धि बड़ी छोटी है।
