संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक गांव के बाहर एक युवक बैठा हुआ था, एक छोटी सी लालटेन लिए हुए। उसे पहाड़ की यात्रा करनी थी, लेकिन पहाड़ दूर था, रात अंधेरी थी और उसके पास छोटी लालटेन थी, जिससे दो-तीन फीट के पेरे में प्रकाश पड़ता था। उसने सोचा, उसने गणित लगाया कि इतना बड़ा अंधकार है दस मील लंबा। इस लालटेन का प्रकाश तीन फीट। अंधकार कभी दूर नहीं हो सकता है इतनी छोटी सी लालटेन से कैसे दूर होगा? इतना लंबा रास्ता कैसे प्रकाशित होगा? वह बैठ गया। उसने कहाः मेरा जाना फिजूल है, इतना अनाप अंधेरा है, इतनी सी लालटेन है, एक कदम पर रोशनी पड़ती है, कैसे पहुंचंगा? कैसे दस मील पार करूंगा?
उसके पीछे ही एक बुढा भागता चला आ रहा है, वह भी छोटा सा हाथ में कंदील लिए हुए है। उस बूढ़े ने पूछा कि बेटे, तुम बैठ क्यों गए हो?
उस जवान लड़के ने कहाः बैठ न जाऊं तो क्या करूं? इस मील लंबा अंधकार है और दो-तीन फीट की रोशनी है मेरे पास। इस रोशनी से दस मील कैसे पार करूंगा?
उस बूढ़े ने कहाः अरे पागल, दस मील पार करना किसे है एक साथ तीन फीट पार कर ले, तब तक तीन फीट आगे रोशनी चली जाएगी। फिर तीन फीट पार कर लेना। फिर तीन फीट पार कर लेना, फिर तीन फीट आगे रोशनी चली जाएगो । रोशनी सदा आगे चलती है न, तो बस फिर दस मील क्या, हजार मील का अंधकार भी कट जाएगा। लेकिन अंधकार चलने से कटता है।
एक उन छोटा सा पैर उठाएं और जिंदगी दूर के दृश्यों पर पहुंच जाएगी, जो आज दिखाई नहीं पड़ते हैं। लेकिन चलने से दिखाई पड़ सकते हैं। जो आज सिर्फ शब्दों के जाल मालूम पड़ते है. वही कल जीवन के सत्य बन सकते है। जो आज सुनने में मधुर मालूम पड़ते हैं, काश, हम वहां पहुंच जाएं तो वे कितने मधुर होंगे, इसे कहना कठिन है।
