आदमी कभी उस जगह नहीं पहुंचता, जहां वह कह सके, आ … जैसे महात्मा का महाशख…

संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द

मैंने एक कहानी सुनी है। एक आदमी ने वर्षों शिव की पूजा की और अंततः शिव प्रकट हुए और और उसे वरदान के रूप में एक शंख दिया, और कहा कि इस शंख की यह खूबी है कि तुम इससे जो मांगोगे, तुम्हें देगा। उसने मांग कर देखा, जो मांगा, कि बन जाए एक महल, बन गया एक महल, कि बरस जाएं सोने के रुपये, और सोने के रुपये बरस गए। धन्यभाग हो गया। लेकिन एक मुसीबत हो गई। एक महात्मा इसके महल में मेहमान हुए। महात्मा के पास भी एक शंख था। इसके पास जो शंख था बिलकुल वैसा, लेकिन दो गुना बड़ा। और महात्मा उसे बड़े सम्हाल कर रखते थे। उनके पास कुछ और न था। उनकी झोली में बस एक बड़ा शंख था। इसने पूछा कि आपइस शंख को इतना सम्हाल कर क्यों रखते हैं?

उन्होंने कहाः यह कोई साधारण शंख नहीं, महाशंख है। मांगो एक, देता है दो। कहो, बना दो एक महल दो महल बनाता है। एक की तो बात ही नहीं।

उस आदमी को लालच उठा। महात्मा के पैर पकड़ लिए। आप तो महात्मा हैं, त्यागी-व्रती हैं। इस गरीब का शंख आप ले लो, यह महाशेख मुझे दे दो। महात्मा ने कहाः जैसी तुम्हारी मर्जी। _ महात्मा तो सुबह चले गए। जब इसने उस शंख से कुछ मांगा, तो उसने कहा: अरे नालायक! क्या मांगता है एक? दूंगा दो। उसने कहाः भई, दो दे दो। उसने कहाः दूंगा चार। चार ही दे दो। उसने कहाः दूंगा आठ। सुबह होने लगी। संख्या लंबी होने लगी। आखिर उस आदमी ने पूछाः भई दोगे भी कुछ कि बस बातचीत ही बातचीत?

उसने कहाः हम तो महाशंख है। हम तो गणित जानते हैं। तुम मांग कर देखो। तुम जो भी मांगो, हम दोगुना कर देंगे। इसने कहा: मारे गए। वह महात्मा कहां है?

उसने कहाः वह महात्मा हमसे छुटकारा पाना चाहता था बहुत दिन से। मगर वह इस तलाश में था कि कोई असली चीज मिल जाए। वह ले गया असली चीज। अब ढूंढ़े से न मिलेगा। अहंकार महाशंख है। कितना ही मिल जाए, और चाहिए। संख्या बढ़ती जाती है। दौड़ बढ़ती जाती है। और आदमी कभी उस जगह नहीं पहुंचता, जहां वह कह सके, आ गई मंजिल। मंजिल हमेशा मृग मरीचिका बनी रहती है। दूर की दूर। यात्रा बहुत, पहुंचना कहीं भी नहीं।

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