संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
मजनूं को उसके गांव के राजा ने बुला भेजा था और कहा था,’’ तू पागलपन बंद कर। यह लैला, जिसके पीछे तू दिवाना है, तेरी दीवानगी सुनकर हमको भी खयाल हुआ था कि देख लें, देखी हमने, काली-कलूटी साधारण-सी स्त्री। तुझ पर दया आती है–दौड़ता रहता है गांव की सड़कों पर, लैला-लैला पुकारता रहता है’’।
दया सभी को आने लगी होगी। सम्राट ने अपने महल से दस-बारह सुंदर स्त्रियां लाकर खड़ी कर दीं कि इनमें से तू चुन ले कोई भी। लेकिन मजनूं ने उस तरफ देखा और कहने लगा,’’ लेकिन लैला कहां है? इनमें कोई लैला नहीं है’’। सम्राट ने कहा,’’ मैंने लैला देखी है। तू दीवाना है, पागल है’’ । मजनूं हंसने लगा। उसने कहा कि’’ मजनूं की आंख के बिना तुम लैला देख कैसे सकोगे , मजनूं की आंख चाहिए लैला देखने को’’ ।
भक्त की आंख चाहिए भगवान को देखने को। सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। भक्त ही नहीं हार जाते, मजनूं भी हार जाता है। वह क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरी आंख से देखोगे तो ही…। वह सौंदर्य कुछ ऐसा है कि उसके लिए खास आंख चाहिए–एक दृष्टि चाहिए!
प्रेम का सौंदर्य देखने के लिए भीतर भी प्रेम का सैलाब चाहिए। प्रेम को भीतर की आंखों से ही देखा जा सकता है।
