राजा के दंड का अधिकारी कौन?

संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द

एक दिन, एक राजा ने अपने प्रिय विदूषक को बुलाया और पूरे दरबार के सामने उसे अपना दंड सौंपते हुए कहा, इसे एक राजकीय निशानी की तरह अपने पास रखो, और जब तुम्हें तुमसे भी बड़ा कोई मूर्ख मिल जाये तो यह दंड उसे दे देना।’

कुछ समय बाद राजा बीमार पड़ा और उसकी मृत्यु निश्चित थी। वह अपने विदूषक से मिलना चाहता था जिसने उसे हमेशा हंसाया था। जब विदूषक उसके पास पहुंचा तो राजा ने कहा, ‘मैंने तुम्हें यह कहने के लिये बुलाया है कि मैं एक बहुत लंबी यात्रा पर जा रहा हूँ।

विदूषक ने जब उससे पूछा कि वह कहां जा रहा है तो राजा ने कहा, ‘बहुत दूर- दूसरी दुनिया में।’

विदूषक बोला, ‘मालिक, वहां रहने के लिये जो कुछ जरूरी होगा, क्या आपने उसकी तैयारी कर ली है? क्या आपका स्वागत करने के लिये वहां आपके कोई मित्र होंगे?’

राजा बोला, ‘नहीं पागल, वहां के लिये कैसी तैयारी? और वहां कौनसे मित्र? विदूषक ने उदास होते हुए अपना सिर हिलाया और राजा का दंड उसीके हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘मालिक यह दंड आप ही रखें। आप दूसरी दुनिया में जा रहे हैं और आपने वहां जाने के लिये कोई तैयारी ही नहीं की है। यह दंड आपको ही मिलना चाहिये, किसी और को नहीं।

यह जीवन एक अवसर है कि तुम वास्तविक जीवन के लिये तैयार हो सको। यदि तुम उसके लिये तैयार नहीं होते तो तुम मूर्ख हो, तुम एक महान अवसर गंवाये दे रहे हो। वास्तविक जीवन इसी जीवन में कहीं छिपा है, लेकिन उसे जगाना होगा। उसे नहीं जगाते तो तुम्हारा जीवन बस एक लंबा दुस्वप्न होगा, तुम दुख में ही जियोगे। वास्तविक जीवन को जानने की अभीप्सा भी तुममें उठने लगे तो तुम्हारे भीतर से आनंद के छिपे हुए स्रोत फूटने लगते हैं। और जिस क्षण तुम उसकी पूरी लय में आ जाते हो, तुम्हारा जीवन नितांत आनंदमय हो जाता है। फिर मृत्यु भी नाचती हुई आती है। वास्तविक जीवन के प्रति अभीप्सा जगाओ। यह पहला कदम ही स्वयं तुम्हें मंजिल तक ले जायेगा।

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