संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक आदमी के घर ने आग पकड़ ली। आलीशान और बहुत सुंदर घर था, जिसे बनाने में उसके पूरे जीवन की पूंजी लगी थी।
और अब यह घर उसकी आंखों के सामने धू-धूकर जल रहा था। हजारों लोग इकट्ठा हो गये थे और उसे सांत्वना देने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन उस आदमी के सामने तो उसका पूरा जीवन जला जा रहा था, उसका बुरा हाल था। तभी उसका एक बेटा दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘पिताजी, आप क्यों रोते है? आप कल बाहर गये थे, तो हमने यह मकान बेच दिया था, और इसमें हमें अच्छा लाभ भी हुआ है। अब यह घर हमारा नहीं है। अब तो वह रोये जिसने यह घर खरीदा है, आपको रोने की कोई जरूरत नहीं है।’
तुरंत उस आदमी ने आंसू पोछ लिये और वह भी उन हजारों लोगों की तरह दर्शक बनकर जलता हुआ घर देखने लगा। अब मेरे पर का भाव नहीं रहा तो कोई दुख और कोई पीड़ा भी न रही। बल्कि वह तो अब खुश था कि चलो अब हम एक नया और बेहतर घर बना लेंगे। घर अभी भी जल रहा था लेकिन वह खुश था।
तभी दूसरा बेटा दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘यह सच है कि कल हमने मकान का सौदा किया था लेकिन अभी दस्तावेज पर हस्ताक्षर नहीं हुए थे और खरीदने वाले ने अभी पैसा नहीं दिया था। तो यह हमारा ही घर है जो जल रहा है, और आप ऐसे देख रहे हैं जैसे कि आप बस एक दर्शक हो। और तुरंत आंसू फिर से बहने लगे, दिल पर पत्थर पड़ने लगे।
परिस्थिति नहीं बदली-घर जलता रहा, वह भी वहां खड़ा रहा। लेकिन अलग- अलग संदेशों से उसकी भावदशा बदलती रही। घर मेरा तो दुख, घर मेरा नहीं तो खुशी।
तादात्म्य दुख का मूल कारण है। दुख आता है आसक्ति के कारण। यदि सदा इस बात के प्रति सचेत रहो कि कुछ भी तुम्हारा नहीं है। सचेत रहो कि तुम कोई आसक्ति न बना लो। जानो चीजें बदलती रहती हैं और परिवर्तन को स्वीकार करने के लिये सदा तैयार रहो-और तुम अपने लिये एक स्वर्ग निर्मित कर लोगे।
