हाय रे, सारे चावल क्यों न दे दिये !

संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द

एक भिखारी सुबह-सुबह अपने द्वार से नगर की ओर भिक्षा मांगने के लिए निकला। जैसे ही राजपथ पर आया, सुबह का सूरज निकलता था, सुबह की ठंडी हवाएं, सूरज की नई किरणे। राजपथ पर आते ही उसे दिखाई पड़ा, दूर से राजा का स्वर्ण-स्थ चमकता हुआ चला आ रहा था। हृदय भर गया खुशी से। अब तक राजा के सामने कभी भिक्षा नहीं मांगी थी। गया था राज‌द्वार पर, लेकिन द्वारपाल वहीं से भगा देते थे। कौन भीतर घुसने देता, राजा तक कौन पहुंचने देता। आज तो राह पर ही राजा मिल गया है। सपने बांधने लगा कि राजा क्या देगा, क्या नहीं देगा। सोचने लगा कल्पनाओं में कि राजा यह देगा और यह ऐसा होगा। और सोचते-सोचते सपनों में खड़ा था वह, कि राजा का रथ सामने आकर ठिठक कर खड़ा हो गया। इसके पहले कि वह झोली फैलाता, राजा नीचे उतरा और राजा ने अपनी झोली में उस भिखारी के सामने फैला दी।

भिखारी ने जीवन में कभी दिया न था, हमेशा लिया था। देने की कोई आदत न थी, कोई साहस न था। खड़ा रह गया, हाथ हिलते न थे। झोली में हाथ डालता था, मुट्ठी बांधता था चावलों की, पर छोड़ देता था। एक मुट्ठी चावल व्यर्थ चले जाने को थे, । फिर किसी भांति हिम्मत कर उसने मुट्ठी बांधी, एक चावल निकाल कर लाया और राजा की झोली में डाल दिया। राजा बैठा रथ पर चला गया, धूल उड़ती रह गई, भिखारी रोता रह गया। दिन भर भीख मांगी, सांझ लाँटा बहुत उदास था। आज झोली बहुत भरी थी, बहुत भिक्षा मिली थी। लेकिन खुशी इसकी न थी कि जो झोली भर गई थी, दुख इसका था कि एक चावल छूट गया था, खो गया था।

वह रोता हुआ घर लौटा, झोली खोली पत्नी ने, सारे चावल के दाने नीचे बिखर गए। भिखारी तो छाती पीट कर रोने लगा। झोली खोलते ही दिखाई पड़ा, एक चावल का दाना सोने का हो गया है। तब वह छाती पीट कर रोने लगा कि मैंने सारे चावल के दाने क्यों न दे दिए। वे सब सोने के हो जाते। लेकिन अवसर बीत गया और अब कुछ भी नहीं हो सकता था सिवाय इसके कि वह रोता।

जो आदमी अपने जीवन में प्रेम से जितना दे देता है, बांट देता है, उसका जीवन उतना ही स्वर्ण का हो जाता है। और जो आदमी जितना रोक लेता है ,उतना ही मिट्टी हो जाता है आखिर में।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *