गोंदली जलाशय में प्राप्त भग्नावशेष इमारत जिसे शीतला मंदिर बताया जा रहा है, कहते हैं किसी के मकान का अवशेष है!

लोक असर एक्सक्लूसिव ग्राउंड रिपोर्ट

बालोद

बालोद जिले के नामचीन गोंदली जलाशय पिछले कुछ दिनों से चर्चा एवं कौतूहल का विषय बना हुआ है , जिसे लेकर स्थानीय मीडिया में आए दिन जलाशय में प्राप्त इमारतनुमा भग्नावशेष पर खबरें प्रसारित व प्रकाशित हो रही, जिसके चलते गोंदली जलाशय के मध्य भाग में मिलने वाला खंडहर को देखने इन दिनों दूर – दूर से लोग भी आने लगे हैं, आलम यह है कि उक्त इमारतनुमा खंडहर में पहुंच कर लोग आस्था और श्रद्धा से धूप दीप, नारियल का चढ़ावा कर पूजने भी लगे हैं। वह इसलिए कि इस भग्नावशेष इमारत को कतिपय समाचार पत्रों के माध्यम से शीतला मंदिर के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, किंतु उस भग्नावशेष स्थल को नजदीक से जाकर अथवा सूक्ष्मता से अध्ययन नहीं किया जा रहा है। सिर्फ वाह्य आवरण से अनुमान लगा लिया गया है कि गोंदली जलाशय के मध्य में उपस्थित खंडहर शीतला मंदिर ही है। लेकिन पुरातात्विक अध्ययन व दृष्टिकोण से देखा जाए तब वह खंडहर शीतला मंदिर नहीं है, यदि मंदिर के रूप में देखा भी जाता है तो वह दंतेश्वरी देवी का मंदिर हो सकता है!

यदि दंतेश्वरी देवी के मंदिर के रूप में ही देखा जाए तो इसके पर्याप्त साक्ष्य उक्त खंडहर के मुख्य दीवार जो की पूर्णतया साबूत है उस दीवार में बनाए गए प्रतीक चिन्ह के अध्ययन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि खंडहर अवस्था में जो अवशेष दिख रहा है वह गोंडवंशीय राजाओं के पूजन स्थल रही होगी ! तब यहां पर बियावान जंगल होने के साथ ही आसपास आदिवासी बहुल तक़रीबन दर्जन भर गांव अस्तित्व में रहे होंगे।

जलाशय निर्माण के समय डुबान में आने वाले कई गांव को अन्यत्र विस्थापित कर दिया गया। वहीं तीन चार गांव का अस्तित्व ही नहीं बचा और वक्त के साथ यहां पर गोंडवंशीय राजाओं अथवा किसी व्यक्ति विशेष द्वारा बनवाए गए मकान लोगों के जेहन से विस्मृत हो चला होगा।

इमारत तकरीबन सात दशकों तक जलमग्न रहा

ऐसा माना जा रहा है कि जलाशय निर्माण के पश्चात कई गांव को तो विस्थापित कर दिया गया है, किंतु इस विशाल और मजबूत मंदिर अथवा मकान को नहीं हटाया जा सका। इस प्रकार यह इमारत जल समाधि जैसी अवस्था में चली गई और तकरीबन सात दशकों तक पानी में डूबा रहा ।

गोंदली जलाशय जो कि अपने निर्माणकाल के बाद से अनवरत पानी से भरा रहा एवं समय के साथ जलाशय को संधारण की नौबत आ गई इस स्थिति में इस जलाशय का पानी की निकासी कर दी गई, ताकि सुगमतापूर्वक जलाशय के मुख्य गेट में आई खराबी को दुरुस्त किया जा सके । जल संसाधन विभाग द्वारा पानी निकाल दिया गया । इससे जल समाधि हो चुकी इमारत तब स्पष्ट दिखाई देने लगा। किसी ने इसे पुरातन शीतला मंदिर मानकर इसकी फोटो प्रसारित (वायरल ) कर दिया। इसके साथ ही स्थानीय मीडिया द्वारा भी इस भग्नावशेष इमारत को शीतला मंदिर बताते हुए ख़बरें भी प्रकाशित करने लगे। लेकिन उसके तह तक जाने की जरूरत नहीं समझी गई। यहां तक इलेक्ट्रानिक मीडिया के रिपोर्टरों द्वारा भी उन प्रतीक चिन्हों को दिखाने में रूचि नहीं दिखाई। और सभी ने शीतला मंदिर होने की कहानी पर मुहर लगा दी।

पुरातत्व एवं इतिहास में खासी लगाव रखने के बनिस्बत इमारत अथवा मंदिर की तथ्यात्मक जानकारी प्राप्त करने के लिए लोक असर की टीम गोंदली जलाशय के मध्य भाग में स्थित कथित शीतला मंदिर जा पहुंचे।

उल्लेखनीय है गोंदली जलाशय के मुख्य गेट को दुरुस्त करने के उद्देश्य से यहां का पानी निकाला गया और जो भग्नावशेष इमारत चूंकि जलाशय के मध्य भाग में स्थित है । ऐसे में यहां तक पहुंचने के लिए सहगांव से होकर चितवा डोंगरी पहाड़ी के नीचे के रास्ते से हमें जाना पड़ा।

30 मई को प्रातः 8:00 बजे जिले के वरिष्ठ पत्रकार अरमान अश्क और स्वयं मैं उसे स्थल पर पहुंचकर यह परखने का प्रयास कर रहे थे कि तथाकथित प्रचारित शीतला मंदिर का भग्नावशेष वास्तविक में क्या हो सकता है? हमने उस स्थान पर तकरीबन डेढ़ घंटे तक इमारत की सूक्ष्मता से अध्ययन प्रारंभ किया ।

11में से 06 गांवों का अस्तित्व ही समाप्त

इसके पहले हम बताना चाहेंगे कि गोंदली जलाशय के डूबान में लगभग 11 गांव प्रभावित हुआ है , जिसमें से ग्राम बकरीटोला , सहगांव, गैंजी , जाटादाह एवं अमलीडीह दूसरी जगह विस्थापित कर दिया गया। जबकि ग्राम गोंदली , छोटे कोलियरी , बड़े कोलियरी, जुझारा , बोइरडीह एवं परसुटोला नामक गांव का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। तात्पर्य यह है कि इन चार गांव के लोग अलग-अलग गांवों में जाकर बस गए होंगे! यह भी बताना लाजिमी है कि गोंदली गांव की रकबा शायद अन्य गांव की तुलना में ज्यादा रही होगी। जिसके नाम पर गोंदली जलाशय का नाम पड़ा है, वहीं जुझारा गांव का भी अपना अस्तित्व नहीं रहा। किंतु , जुझारा नाला के रूप में गांव का नाम आज भी जीवित है , जबकि ग्राम छोटे कोलियरी , बड़े कोलियरी , परसुटोला एवं बोइरडीह का अस्तित्व पूर्णतया खत्म हो चूका।

दमऊ दाहरा जलाशय के साथ तिरोहित

जनश्रुतियों के मुताबिक जिस इमारत को मंदिर के नाम पर प्रचारित किया गया । वह इमारत गोंदली गांव का अटूट हिस्सा रहा है । जुझारा नदी का शायद उद्गम स्थल भी ग्राम गोंदली या परसुटोला स्थित दमऊ दाहरा हो सकता है , जो कि अथाह गहरा हुआ करता था , बताया जाता है कि अनेकों लोगों की डूब कर उसमें मौत हो चुकी है। जलाशय निर्माण के पश्चात जुझारा नाला का उद्गम स्थल दमऊ दाहरा भी अपना स्वरूप खो दिया है।

जल संसाधन विभाग के शिलालेख में उल्लेखित है कि गोंदली जलाशय का निर्माण कार्य 1951 में प्रारंभ हुआ था और 1956 में जलाशय पूरी तरह बनकर तैयार हो गया।

लोक असर की टीम वहां पहुंचकर देखा लोग श्रद्धावश इमारत की गिरी दीवार की पूजा कर रहे थे। जिसमें छोटे छोटे टुकड़ों में नादिया बैल एवं कुछ पुराने पत्थर आदि जिसे किसी ने एकत्र कर दिया है। एक गांव से आए एक दंपति ने तो मेरे जूते नहीं निकलने पर क्रोधित हो आस्था का हवाला तक दे दिया। लेकिन बाद में हमारे पूछे जाने पर अपनी गलती स्वीकार कर ली और हमारे अध्ययन में सहयोग भी किया।

प्रतीक चिन्ह गोंडवाना संस्कृति की जीवनशैली है

हम बता रहे थे इमारत का मुख्य दीवार जो कि पूरी तरह सुरक्षित खड़ा है अन्य तीन दीवारें गिर चुकी है। मुख्य दीवार में प्रवेश द्वार के ऊपर वाले हिस्से में जो प्रतीक चिन्ह देखने को मिला है वह प्रतीक चिन्ह गोंडवाना संस्कृति का परिचायक है। यहां यह भी बताना गैरवाजिब नहीं होगा। यदि यह इमारत मंदिर होता तो कहीं ना कहीं इसका ऊपरी भाग गोलाकार जरूर होता है । वह नहीं है, इससे साबित होता है कि यह किसी का मकान रहा होगा । जो कि उस समय के उस गांव के मादबर यानी दाऊ का हो सकता है। तभी इतनी मजबूत मकान बनवाया गया था ,जो कि सात दशकों तक जलमग्न होने के बाद भी अपना अस्तित्व कायम रखा हुआ है । वहां सिर्फ एक ही मकान का अवशेष है, इससे ऐसा भी लगता है कि बाकी घर या मकान मिट्टी एवं घास फूंस की रही होगी। इतना अवश्य है कि कहीं- कहीं पर पत्थरों की नींव अपने मकान होने की गवाही दे रहा है । इमारत के प्रवेश द्वार पर प्रतीक चिन्ह निर्मित है वह गोंडवाना से संबंधित है क्योंकि गोंडवाना संस्कृति में ही प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। तब उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं था , वह अपने पुरखों तक को प्रतीकों में जीवित रखे हुए हैं।

प्रवेश द्वार के ऊपर दिखने वाले वाले प्रतीकों में

ऐसे में यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि किसी आदिवासी परिवार द्वारा इसका निर्माण कराया गया होगा। स्पष्ट प्रतीत होने वाले प्रतीकों में प्रवेश द्वार के बाएं तरफ देखें तो सर्वप्रथम “सिंह” बनाया गया है। उसके बाद प्रवेश द्वार के ठीक ऊपर दो वनदेवी और वनदेवी के ठीक ऊपरी भाग में दो मछलियां बनाई गई है , वही द्वार के दाएं तरफ गोंडवाना का चक्र जैसा चिन्ह निर्मित है । दरवाजे के आजू-बाजू में दीपशिखा बनी हुई है। मुख्य दीवार पर दरवाजे की ऊपरी भाग में प्रतीकों के ऊपर वाले हिस्से में लकड़ी का बीम लगाए जाने का आयताकार खोल भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भवन की दीवार भले ही ईट से निर्मित की गई हो, किंतु ऊपर का छप्पर जरूर ही खपरैल की रही होगी।

दीवार की जोड़ाई इससे की जाने की संभावना है

दीवार की मोटाई तक़रीबन 2फीट है। एक जानकारी के अनुसार ईटों की जोड़ाई एवं प्लास्टर स्थानीय बोली में चमारगोटा (एक पत्थर के चमकदार छोटे-छोटे गोलाकार गोंटे ), बेलगुदा एवं चूने के सम्मिश्रण से तैयार किया जाता रहा है और इसी तकनीक का इस भग्नावशेष इमारत में भी इस्तेमाल की गई थी। तभी इसकी मजबूत पकड़ ने तकरीबन सात दशकों तक पानी में डूबे रहने के बाद भी कायम है। आधुनिक भाषा में कहें तो फेविकोल की जोड़ से भी कई गुना अधिक मजबूत पकड़ है ।

हमारा अनुमान भी नकारा साबित हुआ

जिले के पुरातात्विक इल्म रखने वाले पत्रकार अरमान अश्क और मैं यह प्रयास लगा पाए कि यह मंदिर नहीं किसी का मकान है , लेकिन हम कोई निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे। प्रतीक चिन्हों को देखकर इतना जरूर अनुमान लगा चुके थे, जिसे शीतला मंदिर बताया जा रहा है वह किसी भी दृष्टिकोण से शीतला मंदिर नहीं हो सकता । यदि मंदिर ही होगा तो निश्चित ही दंतेश्वरी देवी का मंदिर हो सकता था! किंतु हमारा अनुमान भी नकारा साबित हुआ।

सामाजिक कार्यकर्ता चेतन नागवंशी का दावा

जब आदिवासी समाज में जन्मे पुरातत्व में रुचि रखने वाले सेवानिवृत शिक्षक एवं समाजसेवी चेतन नागवंशी द्वारा बताया गया कि जिसे मीडिया द्वारा शीतला मंदिर के रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह मंदिर नहीं है बल्कि मेरे चाचा जी का मकान था। और उनकी बातों में सच्चाई भी है और साक्ष्य भी।

शीतला मंदिर होने की कोई साक्ष्य नहीं है : चेतन नागवंशी

उनसे टेलीफोन पर संपर्क करने पर उन्होंने गोंदली जलाशय स्थित भग्नावशेष इमारत के संबंध में जानकारी दिया है। आइए उन्हीं के शब्दों जानते हैं कि क्या बताते हैं – डूब में आने वाले कई गांव बस गए। लेकिन ग्राम गोंदली जो कि सबसे बड़ा गांव था, इसके साथ ग्राम परसुटोला तथा बोइरडीह पूरी तरह से उजाड़ हो गया और इन गांवों के लोग अलग अलग गावों में जाकर बस गए। उनमें से एक मेरे चाचा ढूलू राम ठाकुर (मंडावी) जो प्रधान पाठक थे। ग्राम कोरगुड़ा में जाकर बस गए थे।

जिस इमारत के अवशेष को शीतला मंदिर बताया जा रहा है दरअसल वह मेरे चाचा जी का मकान था। उस समय वह गांव के दाऊ आदमी थे। और यह मकान आज नहीं बहुत बार दिखता रहा है, जब जब पानी कम होता था, लेकिन इस बार विभाग द्वारा पानी की पूरी निकासी होने पर उस मकान का अवशेष पूरा दिखने लगा है। यदि मेरे चाचा जीवित होते तो उनकी उम्र तकरीबन 100 साल के करीब होती। मेरी मां ने मुझे बताया है कि हमारे घर में पटाव में जो म्यांर लकड़ी लगी है उसे मेरे पिताजी को चाचा जी गोंदली गांव के उजड़ने के बाद दिया था। इस प्रकार कथित शीतला मंदिर का वहां पर कोई अस्तित्व ही नहीं है। यदि शीतला मंदिर होता तो उसमें पटाव नही रहता। साथ ही मिट्टी का बना हाथी और घोड़े की सवारी होती। ऐसा वहां पर कुछ भी साक्ष्य नहीं है। इससे सिद्ध होता है वहां कोई मंदिर ही नहीं था। और जिसे बाऊली बताया जा रहा है , कोई बाउली नहीं है, बल्कि कुंआ है। यह माना जा सकता है वह मकान कोई डेढ़ सौ साल पुराना हो सकता है , क्योंकि जलाशय निर्माण को 68 साल हो चुका है। ढूलू राम का एक बेटा भिलाई में है , उनसे पूछा जा सकता है। एक अखबार में जिस व्यक्ति के हवाले से खबर प्रसारित किया गया था वह मेरा सहपाठी रहा है उसे कितना पता होगा।

बाऊली नहीं कुंआ है


जिसे बाऊली बताया जा रहा है वह कुंआ है । और इससे कुछ दूरी पर पांच कब्रें है। इसमें भी गोंडवाना संस्कृति की झलक स्पष्ट देखने को मिलती है। कब्रों में पत्थरों को रखने का आदिवासी समाज में रिवाज़ है। जिसे शीतला मंदिर होना बताया जा रहा है वह निकला किसी के मकान का अवशेष।

मंदिर हो या फिर किसी का मकान यह एक शोध का विषय हो सकता है। बिना कोई साक्ष्य मिले निष्कर्ष निकाल लेना, एक प्रकार से जनमानस में अन्धविश्वास को बढ़ावा देने जैसा है।
ऐसे में उक्त भग्नावशेष इमारत को पुरातत्व विभाग को संज्ञान लेने की जरूरत है।

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