संकलन एवम् प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
एक और झेन फकीर के संबंध में मैंने सुना है। एक विश्वविद्यालय का अध्यापक उसे मिलने गया। उस अध्यापक ने कहा, मुझे ज्यादा समझाने की जरूरत नहीं है, मैं पढ़ा-लिखा आदमी हूं शास्त्र से परिचित हूं, बौद्ध शास्त्रों का ही अध्ययन किया है, उसी में मैं पारंगत हूं इसलिए आप मुझे संक्षिप्त भी कहेंगे तो मैं समझ जाऊंगा। इसलिए लंबे प्रवचन की जरूरत नहीं है, आप मुझे सार की बात कह दें। आपने जो पाया है, उसको संक्षिप्त में कह दें। मैं कोई मूढ़ नहीं हूं कि मुझे आप समझाएं। आप बस इशारा कर दें, मैं समझ जाऊंगा। बुद्धिमान को इशारा काफी होता है। ऐसा उसने कहा।
वह फकीर चुप ही बैठा रहा, कुछ भी न बोला। एक शब्द न बोला। थोड़ी देर चुप्पी रही, फिर उस अध्यापक ने पूछा, आप कुछ कहते नहीं? उस फकीर ने कहा, मैंने कहा। मौन ही सार है। तुम समझे नहीं, चूक गये। तुम्हें भ्रांति है कि तुम बुद्धिमान हो। मैं चुप रहा, मेरी चुप्पी से ज्यादा और क्या कहूं? यही सार है सारे अनुभव का। मैं शांत रहा, तुम्हारे पास आंखें होतीं तो तुम देख लेते यह प्रज्वलित शांति, यह जलता हुआ भीतर का दीया। मैं चुप रहा, तुमने ही कहा था कि ज्यादा मत कहना। शब्द में तो ज्यादा हो जाएगा। मैंने उतना ही कहा जितना कहना जरूरी था; मैं सिर्फ मौजूद था, लेकिन तुम चूक गये।
अध्यापक ने कहा, ठीक है, आप ठीक कहते हैं, इतनी गहरी मेरी समझ नहीं है। एकाध-दो शब्दों का उपयोग करेंगे तो चलेगा, फिर से कहें। तो उसने कुछ बोला नहीं, रेत पर बैठा था, अंगुली से रेत पर लिख दिया-ध्यान। अध्यापक ने कहा, इतने से भी काम नहीं चलेगा, कुछ थोड़ा और कहें। फिर बोलते क्यों नहीं हैं? रेत पर लिखने की क्या जरूरत है? उस फकीर ने कहा, बोलने से यहां की शांति भंग होगी। ध्यान शब्द तो बोल दूंगा, लेकिन ध्यान की यहां जो अवस्था बनी है वह भंग होगी। लिखने सें भंग नहीं होती, इसलिए रेत पर लिख दिया है। उस अध्यापक ने कहा, थोड़ा और कहें, इतने से काम न चलेगा। तो उसने दुबारा ध्यान लिख दिया। अध्यापक ने और जोर मारा तो उसने तीसरी बार ध्यान लिख दिया। अध्यापक तो पगला गया, उसने कहा, आप होश में हैं? आप वही वही शब्द दोहराए जा रहे हैं।
झेन फकीर हंसने लगा, उसने कहा, सारे बुद्धों ने बस एक ही शब्द दोहराया है, सारे जीवन एक ही शब्द दोहराया है- कितने ही शब्दों का उपयोग किया हो, लेकिन दोहराया एक ही शब्द है-ध्यान, ध्यान, ध्यान। भाषा बदली हो, शैली बदली हो, कथा बदली हो, प्रसंग बदला हो, लेकिन एक ही बात कही है- ध्यान, ध्यान, ध्यान।
सुबह, दोपहर, सांझ, बस एक ही बात समझाते थे- ध्यान। सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है, वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है-ध्यान।
बुद्धों को भी कहीं से भी चखो, ध्यान का ही स्वाद आएगा। फिर बुद्ध चाहे महावीर हों, चाहे मोहम्मद हों, चाहे कृष्ण हों, चाहे क्राइस्ट हों, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। जहां बुद्धत्व हुआ है, वहां से बस एक ही खबर आती है, एक ही निमंत्रण आता है, एक ही बुलावा आता है- ध्यान।
बुद्ध बार-बार ऐसा कहते थे कि जैसा सागर को कहीं से भी चखो, खारा ही है। इस घाट चखो, उस घाट चखो, दिन में चखो, रात में चखो; चुल्ल से चखो कि प्यालियों में भरकर चखो, सागर खारा ही है। ऐसे ही बुद्धों से दिन में सुनो कि रात, कि इस कोने से आओ कि उस कोने से, कि यह प्रश्न पूछो कि वह, इस बुद्ध से पूछो कि उस बुद्ध से, जो भी जाग गये हैं उनका स्वाद एक ही है- ध्यान।
स्वभावतः, जागे हुए का एक ही स्वाद होगा-जागरण। और सोए हुए का एक ही स्वाद होता है-निद्रा। सोए हुए आदमी कितने ही भिन्न हों, उनकी नींद एक जैसी है, उनकी तंद्रा एक जैसी है।
ऐसी ही घटना परम जागरण में भी घटती है। जो भी जागे, उनका स्वाद एक है। निश्चित ही उनके शब्द अलग हैं- कृष्ण संस्कृत में बोले, बुद्ध पाली में बोले, महावीर प्राकृत में बोले, जीसस अरेमैक में बोले, मोहम्मद अरबी में बोले, भाषाओं के भेद हैं, अलग-अलग घाट, अलग-अलग रंग-ढंग की प्यालियां, अलग-अलग देश, अलग-अलग काल में बने हुए पात्र हैं, लेकिन स्वाद एक है। और जो इस स्वाद को पहचान लेता है, वही धार्मिक है। फिर वह हिंदू नहीं रह जाता, मुसलमान नहीं रह जाता, ईसाई नहीं रह जाता, सिर्फ धार्मिक रह जाता है। और धार्मिक होना परम स्वतंत्रता है।
