संकलन एवम प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द
जनक के जीवन में उल्लेख है, एक सदगुरु ने अपने शिष्य को जनक के पास भेजा ज्ञान की अंतिम उपलब्धि के लिए। जनक को देखकर संन्यासी बहुत हैरान हुआ।
दरबार भरा था, नर्तकियां नाचती थीं, शराब के दौर चल रहे थे। इस भ्रष्ट भोगी से ज्ञान की अंतिम शिक्षा क्या मिलेगी ऐसा भाव स्वभावतः संन्यासी के मन में उठा। लेकिन जनक ने उसके भाव को जैसे तत्क्षण पढ़ लिया और कहा कि जल्दी न करो, जल्दी निर्णय न लो। उसने कुछ कहा न था, कुछ बोला न था, यह तो सिर्फ भाव की बात थी। लेकिन जनक ने कहा, जल्दी न करो, जल्दी निर्णय न लो। आ गए हो तो रात विश्राम करो, सुबह सत्संग होगा। थका-मांदा था, सोचा रात रुक जाना ठीक है। सत्संग तो क्या खाक होगा ! देख लिया जो देखना था। यहां भ्रष्ट होना हो तो रुकना ठीक है। लेकिन फिर जनक ने कहा, जल्दी न करो, सुबह तक तो ठहर जाओ, इतना तो धैर्य रखो !
रात भोजन कराया जनक ने, पंखा झला संन्यासी के ऊपर। वे प्यारे दिन थे जब सम्राट भी संन्यासियों पर पंखे झलते थे। फिर भोजन के बाद बिस्तर पर लिटाया। सुंदर बिस्तर ! संन्यासी ने कभी ऐसा बिस्तर देखा भी नहीं था। फिर सुबह हुई, सम्राट आया, संन्यासी से पूछा, रात ठीक से विश्राम किया ? उसने कहा, क्या खाक विश्राम ! विश्राम करने ही न दिया। यह तलवार क्यों ऊपर लटकी है ? बिस्तर के ऊपर एक कच्चे धागे से तलवार लटकी हुई थी नंगी। संन्यासी ने कहा, बहुत उपाय किए सोने के। बहुत करवटें बदलीं, बहुत मन में दोहराया कि आत्मा तो अमर है, मगर वे बातें कोई काम न आयीं।
ब्रह्मज्ञान जो भी मैंने सुना-समझा है, सब याद किया कि अरे, शरीर ही मरता है! न हन्यते हन्यमाने शरीरे। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । सब दोहराया मगर कोई काम न आया। वह तलवार लटकी ऊपर और नंगी और कच्चा धागा ! और जरा हवा का झोंका आ जाए कि टूट जाए। तो रात भर बहुत कोशिश की सोने की मगर सो न पाया। आंखें अटकी रहीं तलवार पर। आंख भी बंद करूं तो तलवार दिखाई पड़ती थी। कभी-कभी शायद थोड़ी-बहुत तंद्रा भी आयी हो, थका-मांदा था तो थोड़ी-बहुत नींद भी लग गई हो, मगर तलवार नहीं भूली सो नहीं भूली। उस तंद्रा में भी तलवार लटकी थी। और तंद्रा में भी मुझे याद थी कि तलवार लटकी है और खतरा है।
जनक ने कहा, कुछ समझ में आया ? ऐसी ही हालत मेरी है। बैठा हूं राजमहल में लेकिन तलवार मौत की लटकी है, वह भूलती नहीं। और जैसे तलवार भूलती नहीं, नींद में भी याद रहती है, वैसे ही परमात्मा को भी याद करने का ढंग है। वह भी भूलता नहीं, नींद में भी याद रहता है। शराब भी चल रही है, नृत्य भी हो रहा है, सब हो रहा है मगर मैं इस सब के बाहर हूं। हूं बीच में मौजूद और फिर भी मौजूद नहीं हूं। तुम्हारे गुरु ने इसीलिए भेजा है कि यह आखिरी सत्य है, यह परम सत्य है। और जब तक यह तुम न जानलोगे तब तक तुम्हारा संन्यास थोथा है, ऊपरी है। अब तुम जा सकते हो।
संन्यास तभी पूरा है जब संसार में रहकर भी और संन्यास पर कालिख न आती हो; जब बाजार में खड़े होकर और ध्यान लगा रहे; जब दुकान पर बैठे-बैठे और जिक्र चलता रहे; जब घर-द्वार का काम भी संभाला जाए, घर-गृहस्थी की फिक्र भी की जाए और फिर भी फिक्र परमात्मा की ही होती रहे। यह आखिरी उपदेश है जिसके लिए गुरु ने तुम्हें यहां भेजा है। अब तुम जा सकते हो।
