जिस आदमी को अपने भीतर का पता चल जाता है उसे गुलाम नहीं बना सकते…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

कहानी है यूनान के बहुत बड़े विचारक डायोजनीज के संबंध में। डायोजनीज नग्न रहता था और एक सुंदर व्यक्ति था। अति बलशाली व्यक्ति था। उन दिनों में सारी दुनिया में दासता की प्रथा थी। आदमी बेचे जाते थे, जैसे जानवर बेचे जाते थे।

चार चोरों ने देखा इस आदमी को। उन्होंने बहुत आदमी देखे थे लेकिन यह मूर्ति की तरह सुदृढ़, यह गढ़ा हुआ आदमी- सोचने लगे कि अगर इसे हम पकड़ लें और यह फकीर है निश्चित, नग्न बैठा है तो बाजार में इतनी कीमत मिल सकती है, जितनी दस-पंद्रह आदमियों को भी बेचने से न मिले। मगर इसको पकड़ेगा कौन? यह हम चार आदमियों के लिए काफी है। यह हम चारों को बेच देगा।

उनकी खुसफुस डायोजनीज़ ने सुनी। झाड़ियों के पीछे छुपे वे विचार कर रहे थे कि इसको कैसे फांसा जाए।

डायोजनीज़ ने कहा, बाहर आओ। झाड़ियों के पीछे खुसफुस करने से कोई फायदा नहीं। मुझे बेचना ही है, मुझसे मुझसे प्रार्थना करो। जंजीरों की कोई जरूरत नहीं है। मैं अपना मालिक है। और अगर चार आदमियों की जिंदगी में खुशी आ सकती है मुझे बेचने से, मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूं। वे चारों एक-दूसरे की तरफ देखने लगे कि यह आदमी कहीं पागल तो नहीं है?

डायोजनीज ने कहा कि मत घबराओ, मेरे पीछे-पीछे आओ। वे बाजार में पहुंचे जहां आदमी बेचे जा रहे थे। ऊंची तख्ती पर आदमी खड़ा किया जाता था और नीलामी बोली जाती थी। वे चारों आदमी डायोजनीज के सामने चोरों की तरह उसके आसपास छिपे हुए खड़े थे। उनकी इतनी हिम्मत भी न थी कि वे कह सके नीलाम करने वाले से कि हम एक गुलाम लाए है, इसको बेचना है। अंततः डायोजनीज़ खुद ही तख्ती पर चढ़ गया। और उसने तख्ती पर चिल्लाकर जो ऐलान किया वह सोचने योग्य है। उसने ऐलान किया कि यहां जितने भी गुलाम इकट्ठे हुए हैं-वहां गुलाम इकट्ठे नहीं हुए थे, वहां रईस थे, राजकुमार थे, रानियां थीं, राजा थे जो अच्छे गुलामों की तलाश में आए थे।

डायोजनीज़ ने कहा, यहां जितने भी गुलाम इकड्डे हैं, मैं तुम सबको चुनौती देता हूं कि ऐसा मौका बार-बार न आएगा। आज एक मालिक खुद अपने को नीलाम करता है। नीलामी सस्ती नहीं जानी चाहिए। गुलाम तो बहुत बिके हैं और बिकते रहेंगे। और गुलाम दूसरे बेचते हैं, मैं मालिक हूं। मैं खुद अपने को बेच रहा हूं। ये बेचारे चार-चार गुलाम मेरे पीछे खड़े हैं। इनको पैसे की जरूरत है। तो किसी की हो हिम्मत मुझे खरीदने की तो खरीद ले। वहां एक सन्नाटा हो गया। वह आदमी इतना मजबूत था कि उसे खरीदना भी सोचने की बात थी, कि इसे खरीदना कि नहीं। कोई झंझट खड़ी करे, घर पहुंचकर कोई उपद्रव खड़ा करे। रास्ते में गर्दन दबा दे।

डायोजनीज़ ने कहा, मत डरो, जरा इन चार गुलामों की फिक्र करो। ये बेचारे मीलों मेरे पीछे चलकर आए हैं। इनकी इतनी हिम्मत भी नहीं है कि ये कह सकें कि मुझे बेचना है। इनकी बोलती खो गयी है। खरीद लो, बिलकुल घबराओ मत। मैं किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। मालिकों ने कभी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।

जिस आदमी को अपने भीतर का पता चल जाता है उसे एक मालकियत मिल जाती है। फिर उसके हाथों में जंजीरें भी हों, पैरों में बेड़ियां भी हों, तो भी तुम उसे गुलाम नहीं कह सकते। तुम उसे मार सकते हो लेकिन उसे गुलाम नहीं बना सकते।

तो जो लोग तुम्हारा वस्तुओं की तरह उपयोग करते हैं, वे दयनीय हैं। वे खुद अपना भी वस्तुओं की तरह उपयोग करते हैं। यहां हर आदमी अपने को बेच रहा है, बड़े सस्ते में बेच रहा है। और जब वह खुद अपने को बेच रहा है तो तुमको कैसे छोड़ेगा? वह तुमको भी बेचेगा। और खुद को बिकते देखकर दुख होता है। लेकिन इस दुख से कोई हल नहीं है। सिर्फ एक ही बात इस परेशानी से तुम्हें मुक्त कर सकती है और वह है, आत्मबोध। इस बात की अनुभुति कि आग मुझे जला नहीं सकती और तलवारें मुझे काट नहीं सकतीं। फिर क्या हर्ज है कि तुम किसी के थोड़े काम आ गए?

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