जिनके भीतर भिक्षा के पात्र ही पात्र भरे हैं, वे मालिक होने के वहम में जीते हैं;

(संकलन एवं प्रस्तुति मक्सिम आनंद)

बुद्ध अपने संन्यासियों को भिक्षु कहते थे। खूब मजाक किया उन्होंने। दिस इज़ वेरी आयरॉनिकल। और मजाक में ही कहा, लेकिन मजाक गहरा है और गंभीर है।

बुद्ध एक गांव में गए है, भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगने निकले हैं, और गांव का जो बड़ा धनपति है, नगरसेठ है, उसने कहा कि क्यों ? तुम जैसे सुंदर – सर्वांग सुंदर व्यक्तित्व था बुद्ध का; शायद उस समय वैसा सुंदर व्यक्ति खोजना मुश्किल था- तुम जैसा सुंदर व्यक्ति, और तुम भीख मांगते हो सड़क पर भिक्षा का पात्र लेकर ? तुम सम्राट होने योग्य हो। मैं नहीं पूछता, तुम कौन हो, क्या हो – तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा कुल; मैं तुम्हें अपनी लड़की से विवाह देता हूं; और मेरी संपत्ति के तुम मालिक हो जाओ, क्योंकि मेरी लड़की ही अकेली संपदा की अधिकारिणी है

बुद्ध ने कहा, काश! ऐसा सच होता कि मैं भिक्षु होता और तुम मालिक होते! बाकी तुम सबको भिखारी देखकर और अपने को मालिक समझता देखकर हमने भिक्षा का पात्र हाथ में लिया है; क्योंकि अपने को मालिक कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता, तुम सभी अपने को मालिक कहते हो – हम भिखारी हैं; क्योंकि जिस दुनिया में भिखारी अपने को मालिक समझते हों, उस दुनिया में मालिकों को अपने को भिखारी समझ लेना ही उचित है।

अनूठी घटना घटी थी इस जमीन पर। इतने बड़े सम्राट दुनिया में बहुत कम पैदा हुए हैं जो भिक्षा मांगने की हिम्मत कर सके हों। और अकेला भारत जमीन पर एक देश है जहां बुद्ध और महावीर जैसा व्यक्ति सड़क पर भिक्षा मांगने निकला है-अकेला ! बिलकुल अकेला ! लेकिन यह किसी भीतरी मालकियत की खबर है। और यह बड़ा व्यंग है हम सब पर। भारी व्यंग है।

जिनके भीतर भिक्षा के पात्र ही पात्र भरे हैं, वे मालिक होने के वहम में जीते हैं; और जिनके भीतर से सारी तृष्णा चली गई, वे भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर निकलते हैं। साईकोड्रामा है। यह बहुत मजे का व्यंग है। और बुद्ध जैसे व्यक्ति के व्यंगों को भी हम नहीं समझ पाते, यह बड़ी अड़चन हो जाती है।

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