(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
गुरु के पास जाने का तो एक ही राज है कि तुम अपने को छोड़ कर जाना। फिर वह जो कह रहा है, सही है। । फिर तुम्हें निर्णय करने को कुछ बचा नहीं। और तब तुम उसकी सिखावन सुन पाओगे। क्योंकि ऐसे समग्र हृदय से ही सिखावन सुनी जा सकती है। और तभी तुम सिक्ख हो पाओगे। जिसने सिखावन सुनी वह सिक्ख हुआ।
सिक्ख शब्द बड़ा प्यारा है। वह संस्कृत के शिष्य से बना है। जो सीखने को तैयार है वह सिक्ख। जो सिखावन सुनने को तैयार है वह सिक्ख। जो अभी अपनी ही अकड़ से जी रहा है, जो अभी सीखने को तैयार नहीं, वह सिक्ख नहीं है। तुम वस्त्र पहन सकते हो सिक्ख के, उससे कुछ हल नहीं होता। तुम ढंग बना सकते हो सिक्ख का, उससे कुछ हल नहीं होता। क्योंकि सिक्ख होना एक हार्दिक घटना है।
कहते हैं नानक-
मति बिच रतन जवाहर माणिक, जे इक गुरु की सिख सुणी।
और हजार बातें सुनने से भी कुछ नहीं होगा। एक ही सुन लेने से सब हो जाता है। और तुम कितना सुन चुके हो, फिर भी कुछ नहीं होता। कितना पढ़ चुके हो, फिर भी कुछ नहीं होता। कारण साफै है। तुमने सुना ही नहीं, जहां से सुनना चाहिए था। गुरु की सिखावन तो हृदय से सुनी जा सकती है। कबीर ने कहा है, जो सिर को काट कर जमीन पर धर दे, चले हमारे साथ। किस सिर की बात कर रहे हैं? इस सिर को काटने से कुछ नहीं होगा।
बोधिधर्म एक बौद्ध फकीर हुआ। वह चीन गया। वह बड़ा अनूठा आदमी था। वह दीवाल की तरफ मुंह कर के बैठता था, लोगों की तरफ पीठ। वह कहता था, जब कोई शिष्य आएगा तो उस तरफ मुंह कर लूंगा। तुमसे क्या बात करनी? और तुमसे बात करनी या दीवाल से बात करनी बराबर है। फिर एक आदमी आया, हुईनंग। वह पीछे खड़ा रहा चौबीस घंटे तक। और उसने कहा कि बोधिधर्म। इस तरफ सिर करो। बोधिधर्म चुप रहा। तो उसने अपना हाथ काट कर बोधिधर्म को भेंट किया। और उसने कहा कि अगर देर की तो सिर काट दूंगा। बोधिधर्म ने कहा, इस सिर को काटने से कुछ भी न होगा। अगर उस सिर को काटने की तैयारी हो…। हुईनेंग ने कहा कि सब तैयारी करके आया हूं। जो कहो, वह करने की तैयारी है। नौ साल में पहली दफा बोधिधर्म ने किसी व्यक्ति की तरफ चेहरा किया। हुईनेंग उसका उत्तराधिकारी हुआ। लेकिन उसने पहले पूछा कि इस सिर को काटने से कुछ भी न होगा, उस सिर को…!
कौन सा वह सिर है? वह जो भीतर अस्मिता है, अहंकार है। मैं हूं और मैं निर्णायक हूं- तो तुम शिष्य न हो सकोगे, तो तुम सिखावन न सीख सकोगे।
‘और गुरु की जो एक सिखावन सुन लेता है, उसकी मति माणिक जैसी हो जाती है।’ उसकी चेतना एक स्वच्छता को, पारदर्शिता को उपलब्ध हो जाती है। वह आर-पार देखने लगता है। विचार वहां हट जाते हैं, क्योंकि हृदय में कोई विचार नहीं है। बुद्धि वहां से बहुत दूर पड़ जाती है। सब धुआं बुद्धि का वहां से हट जाता है। एक स्वच्छता, एक ताजगी। और वही ताजगी स्नान है गंगा का।