एकनाथ से वह आदमी कहने लगा कि आप कैसे निष्पाप हुए यह बता दो, तो उसी रास्ते में…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

मैंने सुना है, महाराष्ट्र के एक अपूर्व संत हुए एकनाथ। एक आदमी उनके पास बार-बार आता था। खोजी था। कहता कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। हजार बार उसे समझा चुके थे मगर वह कुछ उसकी समझ में न आता था। वह फिर आ जाता था कि प्रभु, कुछ ज्ञान दें। जीवन निष्पाप कैसे हो? एक दिन सुबह-सुबह आया, एकनाथ से कहने लगा, आप कुछ तो समझायें कि जीवन निष्पाप कैसे हो? उन्होंने कहा, मैं तुझे रोज समझाता, तेरी समझ में नहीं आता तो मैं क्या करूं? वह आदमी कहने लगा कि आप कैसे निष्पाप हुए यह बता दो, तो उसी रास्ते में भी चलें।एकनाथ ने कहा कि ठहर, अचानक मेरी नजर तेरे हाथ पर पड़ गई, तेरी उम्र की रेखा कट गई है। यह बात तो पीछे हो लेगी। उसकी तो कुछ जल्दी भी नहीं है। यह तो तू जनम भर से कर रहा है। मगर यह मैं तुझे बता दूं, कहीं भूल न जाऊं, सात दिन में तू मर जायेगा। तेरी उम्र की रेखा कट गई है। अब जब एकनाथ किसी को कहें कि सात दिन में तू मर जायेगा तो अविश्वास करना तो मुश्किल है। और सब बातों पर चाहे अविश्वास कर लिया हो, मगर इस पर तो कौन अविश्वास करे? एकनाथ जैसा निस्पृह व्यक्ति कहेगा तो ठीक ही कहेगा। वह तो आदमी घबड़ा गया। उसके तो हाथ-पैर कंप गये। वह तो उठकर खड़ा हो गया। एकनाथ ने कहा, अरे कहां चले? बैठो। तुम्हारा प्रश्न तो अभी उत्तर दिया ही नहीं कि मैं कैसे निष्पाप हुआ। उसने कहा, महाराज, अब तुम समझो निष्पाप कैसे हुए। इधर मौत आ रही है, सत्संग की किसको पड़ी है? अब कभी फुरसत मिली तो आयेंगे फिर।

एकनाथ ने हाथ पकड़ा कि भागे कहां जाते हो? वह बोला कि छोड़ो भी जी। इधर बाल-बच्चों को देखें, इतजाम करूं। सात दिन। कहते हो कि सात दिन में मर जाऊंगा। वह तो भागा। अभी आया था तो अकड़ से भरा था। उसके पैर की चाल देखने जैसी थी। अब गया तो कंपने लगा। उन्हों सीढ़ियों से उत्तरा मंदिर की लेकिन सहारा लेकर उतरा। घर गया तो बिस्तर से लग गया। घर के लोगों ने पूछा, हुआ क्या? समझाया-बुझाया कि ऐसे कहीं कोई मौत आती है? लेकिन उसने कहा कि वह पक्का है। मौत आ रही है। ऐसा इंतजाम कर लो, ऐसा इंतजाम कर लो, सब करके वह अपने बिस्तर पर पड़ा रहा। खाना-पीना छूट गया। मरते आदमी को क्या खाना-पीना। तीन दिन में तो वह बिलकुल निढाल होकर पड़ गया। मौत निश्चित आने लगी। घर भर के लोग भी उदास होकर बैठे उसकी खाट के पास।

सातवें दिन जब सूरज ढलने के करीब था और वह बिलकुल मौत की प्रतीक्षा कर रहा था, मौत तो नहीं, एकनाथ आ पहुंचे अपना। दरवाजा खटखटाया। एकनाथ को देखकर नमस्कार करने तक की आवाज उससे नहीं निकल सकी। हाथ नहीं जोड़ सका, इतना कमजोर हो गया।

एकनाथ ने कहा, अरे भाई इतनी क्या बात है? बड़ी मुश्किल से उसने कहा कि अब और क्या ? मौत आ रही है। एकनाथ ने कहा, एक प्रश्न पूछने आया हूं। सात दिन में कुछ पाप किया? पाप करने का कोई विचार आया? उसने कहा, हद हो गई मजाक की। मौत सामने खड़ी हो तो पाप करने की सुविधा कहां? मौत सामने खड़ी हो तो पाप का खयाल कैसे उठे?

एकनाथ ने कहा, उठ, तेरी मौत अभी आई नहीं। रेखा तेरी काफी लंबी है। यह तो मैंने तेरे को सिर्फ तेरा उत्तर… तेरे प्रश्न का जवाब दिया है। और तो तू समझता ही नहीं था। तेरे तो सिर पर खूब जोर से डंडा मारें तो ही शायद तेरी समझ आये।

अब तेरी समझ में आया कि हम निष्पाप कैसे हैं? मौत सामने खड़ी है। जहां जीवन क्षण-क्षण बीता जाता हो, जहां समय चुकता जाता हो, वहां कैसा पाप? जहां मौत सब छीन लेगी वहां कैसा इकट्ठा करना? जहां मौत सब पोंछ देगी वहां कैसे सपने संजोने? जहां मौत आकर सब नष्ट कर देगी वहां क्या बनाना ? लेकिन एकनाथ ने उससे कहा कि तुझे लाख समझाया, तेरी समझ में न आया। यही समझाता था सब, लेकिन जब तक तुझे जोर से चोट न मारी गई तब तक तेरी बुद्धि में प्रविष्ट न हुआ।

और कहानी का मुझे आगे पता नहीं क्या हुआ। जहां तक मैं समझता हूं, वह आदमी उठकर बैठ गया होगा और उसने कहा होगा, छोड़ो। अगर अभी मरना नहीं है तो महाराज, तुम अपने घर जाओ, हमें अपना संसार देखने दो।

कहानी का मुझे आगे पता नहीं, कहानी आगे लिखी नहीं है। शायद इसीलिए नहीं लिखी है। क्योंकि मौत की चोट में अगर थोड़ी-सी उसको समझ भी आई होगी तो मौत की चोट के हटते ही समझ भी हट गई होगी। वह चोट भी तो जबरदस्ती हो गई न। आयोजित हो गई। मौत उसे थोड़े ही दिखाई पड़ी है, मान ली है। मानने में घबड़ा गया।

अब जब फिर पता चला होगा कि अभी जिंदगी काफी बची है तो वह कहा होगा कि महाराज, आयेंगे फुरसत से, सत्संग करेंगे, लेकिन अभी और काम हैं। सात दिन के काम भी इकट्ठे हो गये हैं, वे भी निपटाने हैं। और उस आदमी ने शायद एकनाथ को कभी क्षमा न किया होगा कि इस आदमी ने भी खूब मजाक की। ऐसी भी मजाक की जाती है महाराज? संतपुरुष होकर और ऐसी मजाक करते हैं? शायद उसने एकनाथ का सत्संग भी छोड़ दिया होगा कि फिर यह आदमी कुछ भरोसे का नहीं।

फिर किसी दिन कुछ ऐसी उल्टी-सीधी बात कह दे और झंझट खड़ी कर दे। आगे लिखा नहीं गया है। नहीं लिखे जाने का मतलब साफ है। नहीं तो हिंदुस्तान में जब कहानियां लिखी जाती हैं तो पूरी लिखी जाती हैं। हिंदुस्तानी ढंग कहानी का यह है कि फिर वह आया होगा, महाराज के चरणों में गिर पड़ी, उसने संन्यास ले लिया और उसने कहा कि अब बस में बदल गया। मगर यह लिखा नहीं है, तो यह हुआ नहीं है। यहां तो ऐसा है, न भी होता हो तो भी अंत ऐसा ही होता है।

सुखांत होती है हिंदुस्तान की कहानियां। उसमें दुखांत कभी नहीं होता। सब अंत में सब ठीक हो जाता है। दुर्जन सज्जन बन जाते, संसारी मोक्षगामी हो जाते। सब अंत में ठीक हो जाता है। मरते-मरते तक हम कहानी को ठीक कर लेते हैं

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