(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
संत अगस्तीन से किसी ने पूछा कि मुझे संक्षिप्त में बता दें, सार क्या है धर्म का? पापों से कैसे बचूं? और पाप तो अनेक हैं और जीवन छोटा है!
उस आदमी ने बड़ी ठीक बात पूछी। उसने कहा कि जीवन बहुत छोटा है, पाप अनेक हैं। और एक-एक को छोड़ते बैठा रहा तो मुझे भरोसा नहीं कि छूट पाएगा। जीवन चुक जाएगा। तो मुझे कुछ कुंजी ऐसी दे दें कि एक से सब खुल जाए।
तो संत अगस्तीन ने कहा कि फिर अगर एक ही कुंजी चाहिए – तो प्रेम। तुम प्रेम करो और शेष की चिंता छोड़ दो। क्योंकि जिसने प्रेम किया उससे पाप न होगा। इसलिए ‘मास्टर की’ है। सभी ताले खुल जाते हैं।
तुम चोरी कर सकते हो, क्योंकि तुम जिसकी चोरी कर रहे हो उसके प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम नहीं है। तुम किसी की हत्या कर सकते हो, क्योंकि जिसकी तुम हत्या कर रहे हो उसके प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम नहीं। तुम धोखा दे सकते हो, बेईमानी कर सकते हो, सिर्फ इसलिए कि प्रेम का अभाव है। समस्त पाप प्रेम की गैर-मौजूदगी में पैदा होते हैं। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरे घर में सांप, बिच्छू, चोर, बेईमान, लुटेरे सभी का आगमन हो जाता है। मकड़ियां जाले बुन लेती हैं। सांप अपने घर बना लेते हैं। चमगादड़ निवास कर लेते हैं। रोशनी आ जाए, सब धीरे-धीरे विदा होने लगते हैं।
प्रेम रोशनी है। और तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई भी दीया नहीं जलता, इसलिए पाप है। पाप के पास कोई विधायक ऊर्जा नहीं है। कोई पाजिटिव एनर्जी नहीं है। पाप सिर्फ नकारात्मक है। वह सिर्फ अभाव है। तुम कर पाते हो, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर होना था वह नहीं हो पाया।
थोड़ा समझें। तुम क्रोध करते हो, और सारे धर्म-शास्त्र कहते हैं क्रोध मत करो। लेकिन अगर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का बहाव प्रेम की तरफ न हो तो तुम करोगे भी क्या? क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि क्रोध, ठीक से समझो तो वही प्रेम है, जो मार्ग नहीं खोज पाया। वही ऊर्जा जो फूल नहीं बन पायी, कांटा बन गयी है। प्रेम है सृजन। और अगर तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता, न हो पाए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंसात्मक हो गयी, डिस्ट्रक्टिव हो गयी।
तुम्हारे संतों में और तुम्हारे शैतानों में जो फर्क है, वह इतना ही है कि एक की जीवन-ऊर्जा विध्वंस बन गयी है और एक की जीवन-ऊर्जा सृजन बन गयी है। तो जो आदमी भी सृजन कर सकता है, वह शैतान नहीं हो सकता। और जो आदमी भी सृजन नहीं करता, वह लाख अपने को समझाए कि संत है, वह संत नहीं हो सकता। क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा? जीवन-शक्ति है, उस शक्ति का तुम क्या करोगे? कुछ होना चाहिए। अगर तुम प्रेम करने लगो तो तुमने उसी शक्ति के लिए नयी नहरें खोद दीं। अगर तुम्हारे जीवन में कहीं प्रेम न हो तो तुम्हारी सारी जीवन-शक्ति क्या करेगी? तोड़ेगी, फोड़ेगी, मिटाएगी। अगर तुम बनाने में न लगा सके तो मिटाने में लगोगे। पुण्य जीवन-ऊर्जा की विधायक स्थिति है, पाप नकारात्मक। पाप से सीधा संघर्ष करने की कोई भी जरूरत नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध बहुत है, क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, क्रोध का तो तुम विचार ही मत करो। क्योंकि तुम जितना विचार करोगे क्रोध का, क्रोध को उतनी ही ऊर्जा मिलेगी। जिस चीज का हम विचार करते हैं, उसी तरफ शक्ति बहने लगती है। शक्ति के बहने का ढंग विचार है। विचार नहर की तरह है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहने लगता है। जैसे हमने एक तालाब के पास एक नहर खोद दी, उस नहर से तालाब का पानी हम खेत में ले जाने लगे।
जीवन की जो ऊर्जा है, ध्यान उसके लिए नहर है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन की धारा बहने लगती है। गलत ध्यान हुआ, गलत तरफ बहने लगेगी। ठीक ध्यान हुआ, ठीक तरफ बहने लगेगी। प्रेम, ठीक ध्यान का नाम है।
और नानक कहते हैं, जिस दिन तुम्हारा प्रेम परमात्मा के नाम की तरफ बहेगा, रंग गए तुम! फिर धुल जाओगे। और फिर अतीत के पाप से ही नहीं धुल जाओगे, भविष्य की संभावना से भी धुल जाओगे। इसके पहले कि गंदे होओ, धुले रहोगे। तुम सद्यस्नात हो जाओगे। तुम प्रतिपल नहाए हुए होओगे।
इसलिए जब तुम कभी किसी ज्ञानी के पास जाओगे तो एक सद्यस्नात प्रतीति तुम्हें होगी। जैसे वह प्रतिपल नहाया हुआ है। जैसे अभी-अभी नहा कर निकला हुआ है। एक वैसी ताजगी, जो सुबह की ओस के पास प्रतीत होती है, तुम्हें संत के पास होगी। और उसका कारण सिर्फ इतना है कि धूल इकट्ठी ही नहीं होती। प्रेम के अभाव में धूल इकट्ठी होती है। और प्रेम से उसे धोया जा सकता है।
तो प्रेम के संबंध में पहली बात कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंस न बने। क्योंकि विध्वंस ही पाप है। क्या है पाप? जब तुम कुछ तोड़ते हो, भविष्य में कुछ बनाने के खयाल से नहीं, सिर्फ तोड़ने में ही रस लेने के लिए। क्योंकि तोड़ना दो तरह का हो सकता है। एक आदमी मकान गिराता है, ताकि नया बनाया जा सके। वह तोड़ना नहीं है। वह तो बनाने की प्रक्रिया का अंग है। जब तुम कुछ तोड़ते हो, सिर्फ तोड़ने के लिए, तब पाप हो जाता है।
समझो, तुम्हारा छोटा लड़का है। तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चांटा पाप नहीं है। अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं है, वह उस बच्चे को बनाने के लिए है। तुमने भरपूर प्रेम से मारा है। तुमने मारा ही इसलिए है कि तुम प्रेम करते हो। और अगर प्रेम न होता तो तुम फिक्र ही नहीं करते। भाड़ में जाओ! जो करना हो, करो। एक उपेक्षा होती है कि ठीक है! जहां जाना हो, जाओ।
जो करना हो, करो। एक उदासी होती है। लेकिन तुम प्रेमपूर्ण हो, इसलिए तुम बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तो आग में नहीं गिरने दोगे। तुम उसे रोकोगे। तुम उसे मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है, उस मारने में पुण्य है। क्योंकि सृजन हो रहा है। तुम कुछ बनाना चाहते हो।