(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
मैंने सुना है, लुकमान की एक कहानी है कि एक दिन विवाद हो रहा था और लुकमान बैठा सुन रहा था। लुकमान गरीब गुलाम था और एक सम्राट ने उसे खरीदा था। खरीदने की घटना भी समझने जैसी है। बाजार में लुकमान बिक रहा था। दो और गुलाम उसके साथ बेचे जा रहे थे। उसमें एक सबसे सुंदर गुलाम था। लुकमान बहुत कुरूप था। खरीदनेवाले की नजर पहले तो उस पर गयी, जो सुंदर था, स्वस्थ था। तो उसने पूछा कि तुम क्या कर सकते हो? तो उस आदमी ने कहा, ‘एनीथिंग’। कोई भी चीज कर सकता हूं। अहंकारी आदमी रहा होगा – ‘कुछ भी कर सकता हूं।’ तब उसने दूसरे आदमी की तरफ देखा और उससे पूछा कि तुम क्या कर सकते हो ? उसने कहा, ‘एवरीथिंग’। सभी कुछ कर सकता हूं।
इन उत्तरों को सुनकर उसे लगा कि इस तीसरे से भी पूछ लेना चाहिए कि तू क्या कर सकता है। हालांकि इसे खरीदने का कोई सवाल न था। लुकमान कुरूप था। उस आदमी ने पूछा कि और तू क्या कर सकता है? लुकमान ने कहा, ‘नथिंग’। मैं कुछ भी नहीं कर सकता। सम्राट ने कहा, अजीब उत्तर हैं तुम्हारे। एक कहता है ‘एनीथिंग’, दूसरा कहता है ‘एवरीथिंग’, तीसरा कहता है ‘नथिंग’। तू कुछ तो कर ही सकता होगा कि बिलकुल कुछ नहीं कर सकता ? उसने कहा, ‘अब बचा ही नहीं।’ एक कहता है एवरीथिंग, एक कहता है एनीथिंग; कुछ बचा नहीं करने को। सिर्फ ‘नहीं कुछ’ बचा है, वही मैं कर सकता हूं। ध्यान ‘नहीं-कुछ’ की कला है।
जब तक तुम कुछ कर सकते हो, अहंकार निर्मित होगा, पूंछ बनेगी। तुम जितने कुशल होते जाओगे कुछ करने में, उतने ही तुम अहंकारी होते जाओगे। महल बड़ा होने लगेगा। लुकमान ने ठीक कहा कि ‘नहीं कुछ’। सम्राट को उत्तर तो जंचा। और लुकमान ने कहा, खरीद ही लो, इतना क्या विचार कर रहे हो? इनको तो कोई भी खरीद लेगा, मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है। इनको कोई भी खरीद लेगा, गरीब मजदूर भी खरीद लेगा; कुछ न कुछ कर सकते हैं। ये अपने हाथ फंसे हैं। ये बिकेंगे किसी नासमझ के हाथ। मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है, जो समझता हो। इससे निश्चित ही सम्राट के अहंकार को चोट लगी। पूंछ बड़ी हो गयी। जब किसी ने कहा कि मुझे तो सिर्फ सम्राट ही खरीद सकता है; उसने तत्काल खरीद लिया। और काफी पैसे चुकाये।
लुकमान सम्राट् के घर गया। गुलाम की तरह वह सम्राट के घर रहा। तो उसने एक संस्मरण लिखा है कि एक दिन वह साफ कर रहा था कमरे को। महल के बाहर, सम्राट की ध्वजा हवाओं में फहरा रही थी। और महल के भीतर सीढ़ियों पर बिछा हुआ कालीन विश्राम कर रहा था। तो लुकमान ने कहा, मैंने दोनों की चर्चा सुनी। वह पताका कह रही थी कि मैं सदा मुसीबत में हूं। हवा के झोंके में, धूप, वर्षा, तूफान, आंधी! युद्ध के मैदान पर पहला घोड़ा लेकर मुझे चलता है। गोलियां जहां चल रही हों, तोपें फोड़ी जा रही हों, वहां सबसे आगे मैं होती हूं। मेरा जीवन सदा संकट में है। एक तू है, कालीन से उसने कहा, तू सदा यहीं विश्राम करता है छाया में; न धूप, न हवायें, न आंधियां, न युद्ध के मैदानों पर जाना। तू सदा विश्राम में है। तेरी तरकीब, तेरा राज क्या है ?
तो कालीन ने उस पताका को कहा, ‘ना-कुछ’ हो जाना मेरी तरकीब, मेरा राज है। मैं पैरों की धूल हूं। तूने सिर पर होने का खयाल ले रखा है। तू पताका है। तेरी अकड़ बड़ी है। गोलियां चलेंगी ही तेरे आसपास । आंधी उठेगी ही तेरे आसपास। नहीं तो तेरी अकड़ को सिद्ध करने का उपाय क्या होगा ? तू तनाव में रहेगी ही। मैं ना-कुछ हूं, पैरों की धूल हूं। जो ना-कुछ है, वह विश्राम को उपलब्ध हो जाएगा।
लुकमान झाड़ रहा था, सफाई कर रहा था; हंसने लगा। सम्राट ने उससे पूछा कि तू क्यों हंस रहा है? उसने कहा कि यह कालीन, ठीक उसी जगह पहुंच गयी, जहां मैं। जो मैंने तुमसे कहा था- ‘नथिंग’, कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता; यह कालीन भी उसी राज को पा गयी है। सम्राट ! अगर कुछ सीखना हो, इस कालीन से सीखना, पताका से बचना।
लेकिन कैसे पताका से बचा जाए! अहंकार की पताका तो आगे-आगे चल रही है। तुम जाते हो, उसके पहले तुम्हारा अहंकार चलता है। उस अहंकार की पताका का, तुम शायद अहंकार की पताका के डंडे मात्र हो। पताका ही असली चीज है।
