(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बुद्ध के संघ में बहुत समय तक बुद्ध ने स्त्रियों को दीक्षा न दी। बहुत आग्रह करने पर, और एक बड़ी अनूठी महिला कृशा गौतमी के अत्यंत निवेदन करने पर बुद्ध ने स्वीकार किया। लेकिन तब उन्होंने कुछ नियम बनाए। जब वे नियम बनाते थे, तो उन्होंने भिक्षुओं से कई सवाल पूछे, नियम बनाने के निमित्त। और आनंद ने बहुत से प्रश्न उठाए नियमों के संबंध में, ताकि सब नियम विस्तारपूर्ण हो जाएं। तो आनंद ने पूछा कि कोई भिक्षु अगर किसी स्त्री को मार्ग पर मिले, या भिक्षुणी को मार्ग पर मिले, तो क्या व्यवहार होना चाहिए? तो बुद्ध ने कहा, भिक्षुणी, चाहे भिक्षु उम्र में उससे छोटा भी हो, तो भी उसे प्रणाम करे। यह बात जरा बुद्ध के मुंह में जमती नहीं। महावीर ने भी यही नियम बनाया–कि भिक्षुणी, साध्वी, चाहे सत्तर साल की हो, चाहे दीक्षा लिए हुए उसे पचास साल हो गए हों, और अभी कल के दीक्षित साधु के सामने भी आ जाए तो झुककर नमस्कार करे। साधु को ऊपर बिठाए, स्वयं नीचे बैठे। यह बात महावीर के मुंह में भी जमती नहीं। क्योंकि दोनों स्वतंत्रता के बड़े, समानता के बड़े परिपोषक थे।
जैन और बौद्ध दोनों परेशान रहे हैं कि कैसे इन बातों को छिपाया जाए। वे उनकी चर्चा नहीं उठाते। लेकिन मैं इसमें बड़ा गहरा कारण देखता हूं। क्योंकि बुद्ध और महावीर जब ऐसी बात कहते हैं तो बड़े अर्थ हैं उनके। एक मनुष्य के मन की बड़ी गहरी बात बुद्ध ने पकड़ी। अगर कोई स्त्री पुरुष को सम्मान दे, तो फिर पुरुष की वासना उसके प्रति बहनी मुश्किल हो जाती है, कठिन हो जाती है।
अगर कोई स्त्री तुम्हारे पैर छू ले, तो फिर वासना असंभव हो जाती है–उसने द्वार बंद कर दिया। क्योंकि पुरुष वासना में उसी स्त्री के प्रति झुक सकता है जिसने उसे सम्मान न दिया हो, जिसने उसे आदर न दिया हो। क्योंकि वासना में झुकने का मतलब है पुरुष खुद अपनी ही आंखों में अपने से नीचे गिरता है।
इसलिए वेश्या के साथ तुम जितने वासना का संबंध बना सकते हो किसी और के साथ नहीं बना सकते। क्योंकि उसके सामने नीचे गिरने में कोई डर नहीं है। उसने कभी तुम्हें कोई आदर दिया नहीं।
बुद्ध और महावीर ने, दोनों ने पुरुष के अहंकार को पकड़ लिया ठीक जगह, कि उसका अहंकार ही अगर रुक जाए तो ही रुक सकेगा, अन्यथा वासना का प्रवाह हो जाएगा। अगर कोई स्त्री तुम्हें बहुत सम्मान से चरण छू ले, तो उसने तुम्हें इतना सम्मान दिया कि अब तुम्हें इस सम्मान की रक्षा करनी पड़ेगी। अब तुम्हें ऐसा व्यवहार करना पड़ेगा जिसमें उसका दिया गया सम्मान खंडित न हो। अब तुम वासना के तल पर नीचे न उतर सकोगे। उसने रास्ता रोक दिया।
आनंद ने पूछा कि अगर कोई ऐसी घड़ी आ जाए कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ हों, भिक्षु-भिक्षुणी साथ-साथ हों, तो एक-दूसरे का स्पर्श? तो बुद्ध ने कहा, नहीं। पुरुष स्त्री को न छुए। स्त्री पुरुष को न छुए। आनंद ने कहा, और अगर कोई ऐसी मजबूरी आ जाए कि भिक्षुणी बीमार हो, या भिक्षु बीमार हो और सेवा करनी पड़े? तो बुद्ध ने कहा, वैसी दशा में छुए, लेकिन होश रखे।
पहले तो देखे न। अगर देखना पड़े, तो छुए न। अगर छूना पड़े तो मूर्च्छा में न रहे, होश रखे। भीतर जागा रहे। क्योंकि मनुष्य के मन की जो वासनाएं हैं उनकी आदत तो बड़ी प्राचीन है, और होश बड़ा नया है। ध्यान तो अभी साधा है, साधना शुरू किया है, और वासना बड़ी प्राचीन है। जन्मों-जन्मों की है। उसके संस्कार बड़े गहरे हैं। और जरा सी भी भूल-चूक हुई, जरा सा भी मन मूर्च्छित हुआ कि वासना के मार्ग से जीवन बहना शुरू हो जाता है, एक क्षण में। इधर तुम भूले, उधर वासना का प्रवाह शुरू हुआ। अगर जागे ही रहो, अगर भीतर होश को रखो, तो ही संभव है कि धीरे-धीरे पुरानी परिपाटी टूटे, पुरानी लीक मिटे, नया रास्ता बने।
