(संकलन एवं प्रस्तुति – मैक्सिम आनंद)
खलील जिब्रान ने ठीक कहा है कि सच्चे प्रेमी मंदिर के दो स्तंभों की भांति होते हैं। बहुत पास भी नहीं, क्योंकि बहुत पास हों तो मंदिर गिर जाए। बहुत दूर भी नहीं, क्योंकि बहुत दूर हो तो भी मंदिर गिर जाए ।
… देखते हो ये स्तंभ, जिन्होंने च्वांग्त्सु – मंडप को संभाला हुआ है. ? ये बहुत पास भी नहीं हैं, बहुत दूर भी नहीं हैं। थोड़ी दूरी, थोड़े पास। तो ही छप्पर सम्हला रह सकता है। एकदम पास आ जाएं तो छप्पर गिर जाए; बहुत दूर हो जाए तो छप्पर गिर जाए। एक संतुलन चाहिए। असली प्रेमी न तो एक – दूसरे के बहुत पास होते हैं, न बहुत दूर होते हैं। थोड़ा सा फासला रखते हैं, ताकि एक दूसरे की स्वतंत्रता में व्याघात न हो, अतिक्रमण न हो। ताकि एक दूसरे की सीमा में अकारण हस्तक्षेप न हो।
रवींद्रनाथ के एक उपन्यास में एक युवती अपने प्रेमी से कहती हैं कि मैं विवाह करने को तैयार हूं, लेकिन तुम झील के उस तरफ रहोगे और मैं झील के इस तरफ। प्रेमी की समझ के बाहर है। वह कहता है तू पागल हो गई है ? प्रेम करने के बाद लोग एक ही घर में रहते हैं। उसने कहा कि प्रेम करने के पहले भला एक घर में रहें, प्रेम करने के बाद में एक घर में रहना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। एक दूसरे के आकाश में बाधाएं पड़नी शुरू हो जाती हैं। मैं झील के उस पार, तुम झील के इस पार।
यह शर्त है तो विवाद होगा। हां, कभी तुम निमंत्रण भेज देना मैं आ जाऊंगी। या मैं निमंत्रण भेज दूंगी तो तुम आना। या कभी झील पर नौका विहार करके अचानक मिलना हो जाएगा। या झील के पास खड़े वृक्षों के पास सुबह भ्रमण के लिए निकले हुए अचानक हम मिल जाएंगे, चौंक कर, प्रतिकर होगा।
लेकिन गुलामी नहीं होगी। तुम्हारे बिना बुलाए मैं न आऊंगी, मेरे बिना बुलाए तुम न आना। तुम आना चाहो तो ही आमा, मेरे बुलाने मत आना। मैं आना चाहूं तो ही आऊंगी, तुम्हारे बुलाने भर से नहीं आऊंगी। इतनी स्वतंत्रता हमारे बीच रहे, तो स्वतंत्रता के इस आकाश में ही प्रेम को फूल खिल सकता है।
