धारणाएं अगर पहले ही बना ली है तो तुम असत्य में ही जीने की…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

एक आदमी के घर बगीचे में काम करते वक्त उसकी खुर्पी खो गयी। तो उसने चारों तरफ देखा, एक पड़ोस का लड़का जा रहा था, बिलकुल चोर मालूम पड़ा, उसने कहा हो न हो यही शैतान खुर्पी ले गया। फिर दों—तीन दिन उसने उसकी जांच—परख की, जहा भी दिखायी पड़े तब गौर से देखे, बिलकुल चोर मालूम पड़े। चाल से चोर, आंख से चोर, हर तरह से चोर। और तीसरे—चौथे दिन अपने बगीचे में काम करते वक्त एक झाड़ी में पड़ी हुई वह खुर्पी मिल गयी। अरे, उसने कहा, खुर्पी तो यहीं पड़ी है! फिर उस दिन उस लड़के को देखा, वह एकदम भला सज्जन मालूम पड़ने लगा। न उसने खुर्पी उठायी थी, न उसे कुछ पता है कि क्या हुआ, लेकिन धारणा।

जब तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी चोर, तो तुम्हें चोर दिखायी पड़ने लगेगा। जब तुम्हारी धारणा हो कि फलां आदमी साधु, तुम्हें साधु दिखायी पड़ने लगेगा। ये सत्य को खोजने के ढंग नहीं। धारणा अगर पहले ही बना ली तो तुम तो असत्य में जीने की कसम खा लिए।

तो बुद्ध ने कहा, कोई धारणा नहीं। कोई शास्त्र लेकर सत्य के पास मत जाना। सत्य के पास तो जाना निर्वस्त्र और नग्न, शून्य; दर्पण की भांति जाना सत्य के पास। तो जो हो, वही झलके। तो ही जान पाओगे।
अब मैं तुमसे दूसरी बात कहना चाहता हूं कि विज्ञान से भी कठिन काम बुद्ध ने किया। क्योंकि विज्ञान तो कहता है, वस्तुओं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना।
वस्तुओं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना तो बहुत सरल है, लेकिन स्वयं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना बहुत कठिन है। बुद्ध ने वही कहा। विज्ञान तो बहिर्मुखी है, बुद्ध का विज्ञान अंतर्मुखी है। धर्म का अर्थ होता है, अंतर्मुखी विज्ञान। बुद्ध ने कहा, जैसे दूसरे को देखते हो बिना किसी धारणा के, ऐसे ही अपने को भी देखना बिना किसी धारणा के।

यह जरा कठिन बात है। करीब—करीब असंभव जैसी। क्योंकि हम अपने को तो बिना धारणा के देख ही नहीं पाते। हम तो सब अपनी—अपनी मूर्तियां बनाए बैठे हैं। हम सबने तो मान रखा है कि हम क्या हैं, कैसे हैं, कौन हैं। पता कुछ भी नहीं है, मान सब रखा है। इसीलिए रोज दुख उठाते हैं। क्योंकि कोई हमें गाली दे देता है तो हमें कष्ट हो जाता है। क्योंकि हमने तो मान रखा था कि लोग हमारी पूजा करें और लोग गाली दे रहे हैं। कोई पत्थर फेंक देता है तो हम क्रोधित हो जाते हैं, क्योंकि हमने तो मान रखा था कि लोग फूलमालाएं चढ़ाके, लोग पत्थर फेंक रहे हैं। हमारी धारणाएं हैं अपनी। हमने मन में अपनी एक स्वर्ण—प्रतिमा बना रखी है। कल्पनाओं की, सपनों की, इंद्रधनुषी।
बुद्ध कहते हैं, ये प्रतिमाएं भी छोड़ो। नहीं तो तुम आत्म—साक्षात्कार न कर सकोगे। तुम कौन हो, यह धारणा छोड़ो। हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन। तुम कौन हो, ब्राह्मण कि शूद्र कि क्षत्रिय? तुम कौन हो, साधु कि असाधु? ये सब धारणाएं छोड़ो। तुम निर्धारणा होकर भीतर उतरो। अभी तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि तुम कौन हो। और ये सब धारणाएं बहुत छोटी हैं। असाधु की धारणा तो व्यर्थ है ही, साधु की धारणा भी व्यर्थ है। क्योंकि जिसे तुम भीतर विराजमान पाओगे, वह स्वयं परमात्मा है। ये तुम कहां की छोटी—छोटी धारणाएं लेकर चले हो! इन छोटी—छोटी धारणाओं के कारण वह विराट नहीं दिख पाता। आंखें इतनी छोटी हैं, विराट समाए कहा? तुमने सीमाएं इतनी छोटी बना ली हैं, बड़ा उतरे कैसे? तो तुम अपने भीतर भी टटोलते हो तो बस धारणाओं में ही उलझे रहते हो

बुद्ध ने कहा, भीतर भी ऐसे जाओ जैसे तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। शांत, मौन, अपने अज्ञान को धारण किए भीतर जाओ। तब वही दिखायी पड़ेगा, जो है। और जो दिखायी पड़ेगा वही आंखें खोल देगा। ध्यानी आंख बंद करके ध्यान करने बैठता है, लेकिन जब ध्यान हो जाता है तो आंख ऐसी खुलती है कि फिर कभी बंद ही नहीं होती। फिर सदा के लिए खुली रह जाती है।
जिनको तुमने अपना विचार मान रखा है, कभी खयाल किया, वे क्या हैं? मैं हिंदू , मुसलमान, कि ब्राह्मण, कि शूद्र, कि अच्छा, कि बुरा, कि ऐसा, कि वैसा, ये तुमने जो मान रखे हैं विचार, ये तुम्हारे हैं? ये सब उधार हैं। मन तो एक चौराहा है, जिस पर विचार के यात्री गुजरते रहते हैं। तुम्हारा इसमें कुछ भी नहीं है।

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