वहां बड़ी अड़चन आती है, जहां दूसरे को… मानना पड़ता है …

(संकलन और प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास दो युवक गए। वे साधना में उत्सुक थे और सत्य की खोज करना चाहते थे। उस फकीर ने कहा, सत्य और साधना थोड़े दिन बाद, अभी मुझे कुछ और दूसरा काम तुमसे लेना है। लकड़ी चुक गई हैं आश्रम की, तो तुम दोनों जंगल चले जाओ और लकड़ियां इकट्ठी कर लो। और अलग – अलग ढेर लगाना। क्योंकि तुम्हारी लकड़ी का ढेर केवल लकड़ी का ढेर नहीं है, उससे मुझे कुछ और परीक्षा भी करनी है। तो दोनों युवक गए; उन्होंने लकड़ी के दो ढेर लगाए।

फिर गुरु सात दिन बाद आया, तो उसने पहले युवक के लकड़ी के ढेर में आग लगाने की कोशिश की। सांझ तक परेशान हो गया। आंखों से आंसू बहने लगे। धुआं ही धुआं निकला, आग न लगी। सब लकड़िया गीली थीं। शिष्य ने क्या कहा गुरु को? कि मैं चला। जब तुमसे लकड़ी में आग लगाना नहीं आता, तो तुम मुझे क्या बदलोगे !दूसरे युवक की लकड़ियों में गुरु ने आग लगाई; लकड़िया भभककर जल गईं। सूखी लकड़ियां थीं। दूसरा युवक भी पहली घटना देख रहा था।

और पहला युवक छोड्कर जा चुका था, और जाकर उसने गांव में प्रचार करना शुरू कर दिया था कि यह आदमी बिलकुल बेकार है। एक तो हमारे सात दिन खराब किए लकड़ी इकट्ठी करवाईं। हम गए थे सत्य को खोजने ! इसमें कोई तुक नहीं है, संगति नहीं है। फिर हमने पसीना बहा-बहाकर, खून-पसीना करके लकड़ियां इकट्ठी कीं। और इस आदमी को आग लगाना नहीं आता। तो उसने लकड़ियां भी खराब कीं, धुआं पैदा किया, हमारी तक आंखें खराब हुईं। और यह आदमी किसी योग्य नहीं है। भूलकर कोई दुबारा इसकी तरफ न जाए।

दूसरा युवक भी यह देख रहा था कि पहला युवक जा चुका है। दूसरे युवक की लकड़ियां जब भभककर जलने लगीं, तो उसने कहा कि बस, ठहरो। यह मत समझ लेना कि बड़े अकलमंद हो तुम। लकड़ियां सूखी थीं, इसलिए जल रही हैं, इसमें तुम्हारी कोई कुशलता नहीं है। और मैं चला। अगर तुम इसको अपना ज्ञान समझ रहे हो कि सूखी लकड़ियों को जला दिया तो कोई बहुत बड़ी बात कर ली, तो तुम से अब सीखने को क्या है!

दोनों युवक चले गए। गुरु मुस्कुराता हुआ वापस लौट आया। आश्रम में लोगों ने उससे पूछा, क्या हुआ? तो उसने कहा, दोनों युवक चले गए। गुरु मुस्कुराता हुआ वापस लौट आया। आश्रम में लोगों ने उससे पूछा, क्या हुआ?
तो उसने कहा, जो होना था ठीक उससे उलटा हुआ। पहला युवक अगर कहता कि लकड़ियां गीली हैं, मैं गीला हूं इसलिए तुम्हें जलाने में इतनी कठिनाई हो रही है, तो उसका रास्ता खुल जाता।
दूसरा युवक अगर कहता कि तुम्हारी कृपा है कि मेरी लकड़ियों में आग लग गई, तो उसका रास्ता खुल जाता। लेकिन दोनों ने रास्ते बंद कर लिए। और अब दोनों जाकर प्रचार कर रहे हैं; दोनों ने धारणा बना ली, अब दोनों उसके लिए तर्क जुटा रहे हैं। मुझसे उन्होंने पूछा नहीं। मेरी तरफ देखा नहीं। मैं क्या कर रहा था, मेरा क्या प्रयोजन था, इसकी उन्होंने कोई खोज न की। सतह से कुछ बातें लेकर वे जा चुके हैं। आप भी, जहां भी आपको दूसरे को श्रेष्ठ मानना पड़ता है, वहां बड़ी अड़चन आती है। दूसरे को अपने से नीचा मानना बिलकुल सुगम है। हम हमेशा तैयार ही हैं।

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