भय आसुरी संपदा है, बांधती है। अभय मुक्त करता है, तो वह…

(संकलन और प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)


मैं एक गांव में रहता था। तो मेरे सामने एक सुनार रहता था, बहुत भयभीत आदमी। मैं अक्सर अपने दरवाजे पर बैठा रहता, तो उसको बड़ी अड़चन होती। क्योंकि शाम को वह घर से निकलता, अकेला ही था, तो ताला लगाएगा; हिलाकर ताले को देखेगा दो-चार बार। चूंकि मैं सामने बैठा रहता, तो उसको बड़ा संकोच लगता। तो मैं आंख बंद कर लेता। वह हिलाकर देखेगा। फिर वह दस कदम जाएगा, फिर लौटेगा। पसीना-पसीना हो जाएगा : क्योंकि उसको लग रहा है कि मैं देख रहा हूं। फिर आएगा, फिर ताले को खटखटाका।

मैंने उससे पूछा कि तू एक दफे इसको ठीक से खटखटाकर देखकर क्यों नहीं जाता? कभी दो दफा, कभी तीन दफा ! वह कहता, शक आ जाता है। दस कदम जाता हूं, फिर यह होता है, पता नहीं, मैंने ठीक से हिलाकर देखा कि नहीं देखा !

अब यह भयभीत आदमी है। यह बाजार भी चला जाएगा, तो भी बाजार पहुंच नहीं पाएगा, इसका मन इसके ताले में अटका है। जो चार दफा लौटकर देखता है हिलाकर, वह कितनी ही बार देख जाए,अब यह भयभीत आदमी है। यह बाजार भी चला जाएगा, तो भी बाजार पहुंच नहीं पाएगा, इसका मन इसके ताले में अटका है। जो चार दफा लौटकर देखता है हिलाकर, वह कितनी ही बार देख जाए, क्योंकि जो संदेह एक बार हिलाने के बाद आ गया, वह दुबारा क्यों न आएगा? तिबारा क्यों न आएगा?

यह जो भयभीत चित्त है, यह न रात सो सकता है, न दिन ठीक से जग सकता है। यह चौबीस घंटे डरा हुआ है, सारा जगत दुश्मन है।

तो भय आसुरी संपदा है, बांधती है। अभय मुक्त करता है, तो वह दैवी संपदा है।

मुक्त करने से केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे आप पर सीमा न पड़ती हो, आप खुले आकाश में पक्षी की तरह उड़ सकते हों।

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