इसलिए ज्‍योतिषियों के पास जो जाते है वह मनुष्‍य नहीं है…

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

भाग्‍य जैसी कोई चीज मनुष्‍य के जीवन में तो नहीं होती। पशुओं के जीवन में होती है। पशु का अर्थ ही होता है—जो पाश में बंधा हुआ है। पशु शब्‍द में ही भाग्‍य छिपा हुआ है। जो पैदा होते ही एक विशिष्‍ट ढंग से जीने को बाध्‍य है वही पशु है। कुत्‍ता कुत्‍ते का भाग्‍य लेकर पैदा होता है। लाख उपाय करे तो भी कुछ और नहीं हो सकता। सिंह-सिंह का भाग्‍य लेकिन पैदा होता है। कोई साधना, कोई तपश्‍चर्या रत्‍ती भर भी अंतर न कर पाएगी।

इसीलिए तो हम किसी पशु को निंदित नहीं कर सकते, पापी नहीं कह सकते। क्‍योंकि पुण्‍य की ही स्‍वतंत्रता न हो तो पाप का दोष कैसे? स्‍वतंत्रता ही न हो चुनाव की तो फिर कैसा पाप, कैसा पूण्‍य। कैसी नीति, कैसी अनीति?

किसी पशु को तुम दुश्‍चरित्र नहीं कह सकते। क्‍योंकि पशु तो जीता है नियति से। पशु तो जीता है बंध हुआ। मनुष्‍य की यही तो गरिमा है। यही तो गौरव है; यही तो पशु और मनुष्‍य के बीच भेद है कि मनुष्‍य का कोई भाग्‍य नहीं। मनुष्‍य पैदा होता है, कोरे कागज की तरह—बिना किसी लिखावट के।

फिर तुम्‍हें ही अपने निर्णय से, अपने चुनाव से, अपनी स्‍वतंत्रता से लिखना पड़ता है। कोरे कागज पर। हस्‍ताक्षर सिर्फ तुम्‍हारे—किसी विधाता के नहीं। लकीरें जो चाहो खीचों—तुम्‍हारी। और जब चाहों मिटा दो। क्‍योंकि खींचने वाले तुम ही हो, मिटाने वाले भी तुम ही हो।

मनुष्‍य नियंता है स्‍वंय का। और जब तक मनुष्‍य अपना निर्णय स्‍वयं नहीं लेता तब तक जानना कि वह पशु ही है, दिखाई पड़ता है मनुष्‍य जैसा।

इसलिए ज्‍योतिषियों के पास जो जाते है वह मनुष्‍य नहीं है। ज्‍योतिषियों का धंधा पशुओं के कारण चलता है। मनुष्‍य क्‍यों जाएगा ज्‍योतिषी के पास? किसलिए जायेगा, मनुष्‍य के होने का अर्थ ही स्‍वतंत्रता है।

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