(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
बुद्ध का एक शिष्य हुआ, उसका नाम था पूर्ण काश्यप। वह एक गांव से गुजरता था। लोगों ने गालियां दीं, अपमान किया। वह वैसे ही चलता रहा जैसे चल रहा था। जैसे कुछ भी न हुआ, जैसे हवा का एक झोंका भी न आया, जिसमें उसका बाल भी हिल जाता। उसके साथ के एक भिक्षु को क्रोध आ गया कि हद्द हो गई। ये लोग गाली दिए जा रहे हैं। उसने पूर्ण को कहा कि आप सुन रहे हैं और ये गाली दे रहे हैं! मेरी बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है। हालांकि मुझे ये कोई गाली नहीं दे रहे हैं।
पूर्ण ने कहा, इस पर सोचो। तुम्हें गाली नहीं दे रहे हैं और तुम्हारे बरदाश्त के बाहर हुआ जा रहा है! तुम क्यों बीच में आ रहे हो? जिस तरह तुम्हें ये गाली नहीं दे रहे हैं, उसी तरह मुझे भी नहीं दे रहे हैं। ये तो पूर्ण काश्यप को दे रहे हैं। मेरा क्या लेना-देना ! मेरा नाम पूर्ण रख दिया मां-बाप ने, तो पूर्ण हो गया, अपूर्ण रख देते, तो अपूर्ण हो जाता। कुछ इसमें लेना-देना है नहीं।
हिंदू घर में पैदा होते हैं, हिंदू नाम, मुसलमान घर में पैदा हो जाओ, तो मुसलमान नाम। हिंदू घर में राम हो जाते हो, मुसलमान घर में रहीम हो जाते हो। दोनों नाम का मतलब भी एक ही है। मगर राम और रहीम तलवार खींचकर लड़ जाते हैं, क्योंकि हिंदू-मुस्लिम दंगा हो गया। उसमें राम रहीम को मारता है, रहीम राम को मारते हैं। और दोनों नाम थे। नाम का झगड़ा है।
तुम नाम हो? या तुम रूप हो?
दो शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं भारत के, नाम – रूप। नाम वह सब है, जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया कि तुम हो। नाम का अर्थ सिर्फ तुम्हारा नाम नहीं है। दूसरों ने जो समझा दिया कि तुम हो, तुम्हारा नाम राम, रहीम। तुम हिंदू तुम मुसलमान। तुम जैन, तुम शूद्र, तुम ब्राह्मण। जो दूसरों ने तुम्हें समझा दिया, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है। अगर दूसरे तुम्हें न समझाते, तो जिसका तुम्हें कभी पता न चलता, वह सब नाम के अंतर्गत आ जाता है।
थोड़ी देर को सोचो; अगर तुम हिंदू घर में पैदा न होते या हिंदू घर में पैदा होते ही तुम्हें मुसलमान घर में छोड़ दिया जाता; क्या तुम किसी तरह से खोज सकते थे अपने आप कि तुम हिंदू हो? और कौन जाने, यही हुआ हो तुम्हारे साथ। तुम्हें अपने पिता का पक्का भरोसा है कि तुम उन्हीं से पैदा हुए हो? सिर्फ खयाल है। कोई पक्का तो है नहीं।
तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो? तुम्हें अगर छोड़ दिया जाए तुम्हीं पर, तुम्हें कोई न बताए कि तुम हिंदू हो या मुसलमान हो, तो क्या तुम अपने आप जान लोगे कभी कि तुम कौन हो? कैसे जानोगे? वह सब नाम है, दूसरों ने सिखाया है, दूसरों ने पट्टी पढ़ाई है। वह सब कंडीशनिंग है, संस्कार है।
तो नाम के अंतर्गत दूसरों ने जो सिखाया है, सब आ जाता है। और रूप के अंतर्गत तुम्हारी अपनी जो प्राकृतिक भ्रांतियां हैं, वे सब आ जाती हैं। जैसे कि तुम समझते हो, मैं पुरुष हूं। निश्चित ही, यह किसी दूसरे ने तुम्हें नहीं समझाया है कि तुम पुरुष हो। तुम पुरुष हो। क्योंकि तुम्हारे शरीर का रूप-रंग पुरुष का है। अंग पुरुष के हैं।
तुम स्त्री हो, क्योंकि अंग स्त्री के हैं। यह कोई किसी ने तुम्हें समझाया नहीं। अगर तुम्हें कोई भी न बताए कि तुम पुरुष हो, तो भी तुम एक दिन खोज लोगे कि तुम पुरुष हो। यह रूप है। इसकी तुम खुद खोज कर सकते हो।
लेकिन तुमने कभी आंख बंद करके भीतर खोजकर देखा कि चेतना क्या पुरुष हो सकती है या स्त्री? तुम्हारा बोध स्त्री है या पुरुष ? तुम्हारी कांशसनेस स्त्री है या पुरुष ? कभी तुम बच्चे हो, कभी जवान, कभी के। कभी तुमने भीतर गौर किया कि तुम्हारी चेतना जवान से बूढ़ी होती है? कब होती है? बच्चे से जवान होती है? कब होती है?
शरीर पर तो सीमा बनाई जा सकती है, कि यह बच्चा, यह जवान, यह बूढ़ा; चेतना पर तो कोई सीमा नहीं बनती। अगर बूढ़े आदमी को पता न चलने दिया जाए कि वह बूढ़ा है, अंधेरे में रखा जाए, और कोई उसे बताए न कि कब वह जवान से का हो गया, कोई ऐसा उपाय न करने दिया जाए, जिससे उसे पता चल सके। कोई काम न हो उसके ऊपर, बिस्तर पर आराम करता रहे, भोजन वक्त पर मिल जाए शांति से पड़ा रहे, जवान से का हो जाए-अंधेरे में। क्या उसकी चेतना को कभी भी पता चलेगा कि मैं जवान से बूढ़ी हो गई?
नाम है समाज के द्वारा दी गई भांति और रूप है प्रकृति के द्वारा दी गई भ्रांति। तुम दोनों के पार हो। न तुम नाम हो, न तुम रूप हो। जब तक नाम-रूप का संगठन कुछ पाने की कोशिश करता रहेगा, तब तक तुम चूकते चले जाओगे। इन दो से छूट जाओ-नाम से, रूप से-और भीतर खोजो उसे, जो न तो नाम है और न रूप है। तत्क्षण जिसकी तुम तलाश कर रहे हो सदा-सदा से, तुम पाओगे, वह मिला ही हुआ है।
