(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)
सत्य के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। भीड़ उससे नाते तोड़ लेती है, उस से संबंध विच्छिन्न कर लेती है। समाज उसे शत्रु मानता है। नहीं तो जीसस को लोग सूली देते कि मंसूर की गर्दन काटते? वे तुम्हारे जैसे ही लोग थे जिन्होंने जीसस को सूली दी और जिन्होंने मंसूर की गर्दन काटी। अपने हाथों को गौर से देखोगे तो उनमें मंसूर के खून के दाग पाओगे। तुम्हारे जैसे ही लोग थे। कोई दुष्ट नहीं थे। भले ही लोग थे। मंदिर और मस्जिद जानेवाले लोग थे। पंडित—पुरोहित थे। सदाचारी, सच्चरित्र, संत थे। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे बड़े धार्मिक लोग थे। और जिन्होंने मंसूर को मारा उन्हें भी कोई अधार्मिक नहीं कह सकता। लेकिन क्या कठिनाई आ गई?
जब भी आंखवाला आदमी अंधों के बीच में आता है तो अंधों को बड़ी अड़चन होती है। आंखवाले के कारण उन्हें यह भूलना मुश्किल हो जाता है कि हम अंधे हैं। अहंकार को चोट लगती है। छाती में घाव हो जाते हैं। न होता यह आंखवाला आदमी, न हम अंधे मालूम पड़ते। इसकी मौजूदगी अखरती है। यह मिट जाए तो हम फिर लीन हो जाएं अपने अंधेपन में और मानने लगें कि हम जानते हैं, हमें दिखाई पड़ता है।
जब जाननेवाला कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो जिन्होंने थोथे ज्ञान के अंबार लगा रखे हैं उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उनका ज्ञान थोथा है। उनका ज्ञान लाश है। उसमें सांसें नहीं चलतीं, हृदय नहीं धड़कता, लहू नहीं बहता। उन्हें दिखाई पड़ने लगता है उन्होंने फूल जो हैं, बाजार से खरीद लाए हैं, झूठे हैं, कागजी हैं, प्लास्टिक के हैं। असली गुलाब का फूल न हो तो अड़चन पैदा नहीं होती क्योंकि तुलना पैदा नहीं होती।
बुद्धों का जन्म तुलना पैदा कर देता है। तुम अंधेरे घर में रहते हो, तुम्हारा पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहता है और पड़ोसियों के पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहते हैं। तुम निश्चित हो गए हो। तुम्हें अंधेरे के कोई अड़चन नहीं है। तुमने मान लिया है कि अंधेरा ही जीवन का ढंग है, शैली है। जीवन ऐसा ही है, अंधेरा ही है। ऐसी तुम्हारी मान्यता हो गई। फिर अचानक तुम्हारे पड़ोस में किसीने अपने घर का दीया जला लिया। अब या तो तुम भी दीया जलाओ तो राहत मिले; या उस का दीया बुझाओ तो राहत मिले।
और दीया जलाना कठिन है, दीया बुझाना सरल है। और दीया जलाना कठिन इसलिए भी कि कितने—कितने लोगों को दीए जलाने पड़ेंगे, तब राहत मिलेगी। और बुझाना सरल है, क्योंकि एक ही दीया बुझ जाए तो अंधेरा स्वीकृत हो जाए।
उपनिषद ठीक कहते हैं। सत्य के एक पहलू की तरफ इशारा है कि सत्य के मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। और संत दरिया भी ठीक कहते हैं कि परमात्मा की खोज में जलना ही जलना है। विरह की अग्नि के बिना निखरोगे भी कैसे? जब तक विरह में जलोगे नहीं, तपोगे नहीं, राख न हो जाओगे विरह में—तब तक तुम्हारे भीतर मिलन की संभावना पैदा ही नहीं होगी। विरह में जो मिट जाता है, वही मिलन के लिए हकदार होता है, पता होता है। मिटने में ही पात्रता है। और जलन कोई साधारण नहीं होगी; रोआं—रोआं जलेगा; कण—कण जलेगा। क्योंकि समग्र होगी जलन, तभी समग्र से मिलन होगा। यह कसौटी है, यह परीक्षा है, और यह पवित्र होने की प्रक्रिया है। यही प्रार्थना है। यही भक्ति है।
