अनोखे सदगुरु गुर्जिएफ

(संकलन एवं प्रस्तुति maxim anand)

गुरजिएफ के जीवन में उल्लेख है–गुरजिएफ इस सदी के बड़े सदगुरुओं में एक। और इस सदी के ही क्यों, सारी सदियों के कुछ बड़े सदगुरुओं में एक था। उसके अपने अनूठे ढंग थे।

एक बहुत बड़े धनपति की पत्नी उसकी शिष्या हो गई। औपचारिक रूप से ही उसने कहा कि सब आपके चरणों में चढ़ाती हूं।

गुरजिएफ ने कहा, सोच ले! सब? थोड़ी डरी और झिझकी, लेकिन अब कह चुकी थी, तो उसने कहा : हां, सब। तो गुरजिएफ ने कहा कि जितने हीरे-जवाहरात, जितने मोती-माणिक तेरे पास हों, सबकी पोटली बांध कर ले आ! अब बहुत घबड़ाई! मामला ऐसा हो जाएगा, यह नहीं सोचा था—यह तो औपचारिकता से कहा था।

यह तो मामला ऐसा हो गया जैसे मेहमान तुम्हारे घर में आए और आप कहें : आइए, आइए, आपका ही घर है! और फिर वह जम कर ही रह जाए। वह कहे, तुम्हीं ने तो कहा था; आपका ही घर है! सब आपका है! औपचारिक शिष्टाचार की बात उसने कही थी कि सब आपके चरणों में समर्पित है, इसका कोई मतलब यह नहीं था कि समर्पित है। लेकिन गुरजिएफ ने तो कहा कि ठीक!

बड़ी बेचैन, रात भर सो न सकी। पास में जो महिला आश्रम में थी, उसने पूछा कि सो नहीं रही हो, बात क्या है! तो उसने अपनी दुख-कथा कही कि यह मामला तो बहुत महंगा हो गया।

यह तो करोड़ों के हीरे-जवाहरात मेरे पास हैं। यह मैं कैसे दे दूं? अभी इस आदमी को मैं ठीक से जानती भी नहीं, नई-नई आई हूं–तुम तो यहां वर्षों से हो, तुम्हारा क्या खयाल है? उसने कहा, तुम बिलकुल फिक्र मत करो। जब मुझसे कहा था कि सब दे दो, तो मेरे पास जो भी था—मेरे पास करोड़ों के तो नहीं थे, मगर कोई लाख—दो लाख के गहने मेरे पास भी थे—मैंने सब पोटली बांध कर दे दी थी। उस धनी महिला ने पूछा, फिर क्या हुआ? उसने कहा, फिर यह हुआ कि दूसरे दिन सुबह गुरजिएफ ने वह मुझे वापिस कर दिया। तो उसने कहा, अरे! निश्चिंत हुई।

उसने सब बांधी पोटली, जाकर गुरजिएफ को उसी रात सब दे आई–करोड़ों रुपए का जो भी साज-सामान उसके पास था। दूसरे दिन सुबह रास्ता देखा कि वह वापस लौटे, वह वापस नहीं लौटा।

तीसरे दिन, चौथे दिन…अब वह घबड़ाने लगी। उसने फिर पड़ोस की महिला से कहा कि भई, कितनी देर लगेगी? उसने कहा, मैं नहीं जानती; मुझे तो दूसरे दिन वापस मिल गया था।

आखिर उसने जाकर गुरजिएफ को पूछा। गुरजिएफ खूब खिलखिला कर हंसने लगा और उसने कहा : तेरा वापस नहीं लौटेगा। उसका वापस लौटा था, क्योंकि उसने सच में दिया था। तूने तो दिया ही नहीं, वापस क्या खाक! वापस तो तब लौटे जब तू दे! अभी देना ही नहीं हुआ है, तो मैं वापस भी क्या करूं? उसने दिया था। वापस की कोई आकांक्षा से नहीं दिया था। दिया ही था, समग्र मन से दिया था। सो मुझे लौटा देना पड़ा। करता भी क्या? तूने तो अभी दिया ही नहीं है—अभी मुझे मिला कहां?

अब तो वह महिला और घबड़ाई कि यह तो हद हो गई! मैं दे भी गई और यह आदमी यह कह रहा है कि मिला भी नहीं; अभी तो मिला भी कहां, वापस मैं क्या लौटाऊं?

लेकिन गुरजिएफ ठीक कह रहा है।

गुरु को अगर तुम दे सके, तो सब वापस लौट जाता है—शायद हजार गुना होकर वापस लौट जाता है। शायद देने की, लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती, भाव की ही बात पर्याप्त हो जाती है। मगर बेईमानी नहीं चल सकती।

गुरजिएफ ने लौटा दिया उसका सारा धन और उससे कहा : दरवाजे के बाहर हो जा। यह स्थान तेरे लिए नहीं। यह कोई सौदा नहीं है। यह कोई व्यवसाय नहीं है। यहां हम किसी आत्मिक क्रांति में संलग्न हैं। फिर तो वह बहुत पछताई, बहुत कहा कि ले लें।

गुरजिएफ ने कहा : अभी नहीं, अभी तू जा। अभी भी तू कह रही है कि ले लें इसी आशा में कि वापस लौटाऊंगा। जिस दिन वापस लौटाने की कोई भी आकांक्षा भीतर न रह जाए, वापस पाने की कोई भी भावना न रह जाए, उस दिन आना, उस दिन देखूंगा। और पक्का नहीं कहता कि लौटाऊंगा। वह महिला फिर कभी दोबारा नहीं गई।

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