अतियों से सावधान रहने का नाम जीवन

(संकलन एवं प्रस्तुति मैक्सिम आनन्द)

एक राजकुमार बुद्ध के पास दीक्षित हुआ। श्रोण उसका नाम था। वह भोगी था, महाभोगी था। उसके भोग की कथाएं सारे देश में प्रचलित थीं। बुद्ध तक भी उसकी कथाएं बहुत बार पहुंची थीं। उसकी भोग ही भोग की जिंदगी थी। रात भर जागता था—नाच—गाना, शराब; और दिन भर सोता था। सीढ़ियां भी चढ़ता था तो नग्न स्त्रियां सीढ़ियों के दोनों तरफ खड़ी कर रखी थीं, रेलिंग बना रखी थी उसने नग्न स्त्रियों की। उनके कंधों पर हाथ रख कर वह ऊपर जाता। वह कभी महल के बाहर नहीं निकला था, गद्दियों से नीचे नहीं चला था। फूलों में ही जीया था; कांटों का उसे पता ही नहीं था।


फिर उसने बुद्ध को सुना। और लोग चमत्कृत हुए यही देख कर कि वह बुद्ध को सुनने आया पहले तो। और न केवल सुना, उसने तो खड़े होकर बुद्ध से प्रार्थना की कि मुझे दीक्षित करें; मैं भिक्षु होना चाहता हूं। लोगों को तो भरोसा ही नहीं आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि ज्यादा पी गया है, कि अभी तक रात का खुमार नहीं उतरा है! उसके संगी—साथियों ने भी कहा कि आप क्या कह रहे हैं; सोच—समझ कर कह रहे हैं?


उसने कहा: मैं थक गया हूं, ऊब गया; देख लिया सब भोग। मैं दीक्षित होना चाहता हूं।


वह लौटा नहीं महल। वह संन्यस्त हो गया। बुद्ध के भिक्षुओं ने बुद्ध से पूछा कि यह बड़ी चमत्कार की घटना है। आपने क्या किया? क्या जादू किया इस आदमी पर?
बुद्ध ने कहा: मैंने कुछ नहीं किया। यह है अतिवादी। यह एक अति से दूसरी अति पर डोल गया है, पेंडुलम जैसे डोलता है। यह बड़ा खतरनाक आदमी है। एक अति से थक गया, अब दूसरी अति पर चला।


और उन्होंने कहा: कुछ देर देखो तब तुम समझोगे। पंद्रह दिन में सबको जाहिर हो गया। जो आदमी कभी गद्दियों से नीचे नहीं चला था, वह आदमी कांटों में चलने लगा। दूसरे भिक्षु तो पगडंडी पर चलते, बने हुए रास्ते पर चलते; वह कांटों में चलता। उसने पैर लहूलुहान कर लिए; पैरों में घाव हो गए। दूसरे भिक्षु तो धूप होती तो वृक्ष की छाया में बैठते; वह ठेठ धूप में ही खड़ा रहता। सर्दी होती तो दूसरे भिक्षु धूप में बैठते; वह जाकर छाया में बैठ जाता। वह उलटा ही करता। भिक्षु तो एक बार भोजन करते दिन में, वह दो—चार दिन भूखा रहता और एकाध बार दो—चार दिन में भोजन करता; बस सप्ताह में दो बार से ज्यादा भोजन न करता। सूख गया। सुंदर उसकी देह थी; काला पड़ गया। शरीर से सब मांस—मज्जा चली गई; हड्डी—हड्डी हो गया। तब बुद्ध ने उसके द्वार पर एक दिन दस्तक दी, जिस झोपड़े में वह ठहरा था। वह तो मरी हुई हालत में था बिलकुल।
बुद्ध ने उससे पूछा: श्रोण, मैं एक प्रश्न पूछने आया हूं। मैंने सुना है कि तू जब राजकुमार था तो तू वीणा बजाने में बड़ा कुशल था। मैं यह तेरे से पूछने आया हूं कि वीणा के तार अगर बहुत कसे हों तो वीणा बज सकती है?
उसने कहा: नहीं बजेगी; तार टूट जाएंगे।
और वीणा के तार अगर बहुत शिथिल हों तो वीणा बज सकती है?


उसने कहा: नहीं, तब भी नहीं बजेगी। बहुत शिथिल हों तो चोट ही पैदा नहीं होगी, स्वर पैदा नहीं होगा।
तो बुद्ध ने पूछा: वीणा कैसी होनी चाहिए कि संगीत पैदा हो?


तो श्रोण ने कहा: तार कसना बड़ी कला की बात है। तार ऐसी स्थिति में होने चाहिए कि न तो ज्यादा कसे, न ज्यादा ढीले। एक ऐसी स्थिति भी है तारों की, जब हम कह सकते हैं कि अब न तो ज्यादा कसे हैं, न ज्यादा ढीले हैं; न कसे हैं, न ढीले हैं—ठीक मध्य में, समतुल। और जब वीणा के तार ठीक मध्य में होते हैं, तभी महासंगीत पैदा होता है।


तो बुद्ध ने कहा: यही मैं निवेदन करने आया हूं कि जो नियम वीणा के संबंध में सही है, वही नियम जीवन के संबंध में भी सही है। जीवन की वीणा में भी संगीत तभी पैदा होता है, जब तार न तो बहुत कसे हों, न ढीले हों।
देख, तेरे तार बहुत ढीले थे। तब संगीत पैदा नहीं हुआ। और अब तूने तार बहुत कस लिए, अब तार टूटे जा रहे हैं, वीणा को फांसी लगी जा रही है, अब भी संगीत पैदा नहीं हो रहा है। तू एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता पर चला गया।


और मन यही करता है। ज्यादा भोजन कर लिया तो मन उपवास करने का विचार करने लगता है कि चलो उपवास कर लें, कि उरली—कांचन चले जाएं। फिर दो—चार दिन उपवास कर लिया तो अब मन विचार करने लगता है कि क्या—क्या भोजन करें। भोजन ही भोजन के विचार आने लगते हैं। यही मन की अवस्था है। एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता पर छलांग लगा लेता है; मगर बीच में कभी नहीं रुकता। तो या तो तुम्हें भोजन—भट्ट मिलेंगे या उपवास करने वाले लोग मिलेंगे; लेकिन सम्यक भोजन करने वाले लोग मुश्किल से मिलेंगे। सम्यक भोजन का अर्थ है: न तो जरा ज्यादा, न जरा कम। वही कला है। वही जीवन की वीणा से संगीत को उत्पन्न करने का शास्त्र है। और यही जीवन के समस्त पहलुओं पर लागू है।

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