(लोक असर के लिए दंतेवाड़ा से उमाशंकर की विशेष रिपोर्ट)
हर साल दीपावली पर हमारे घर रौशन होते हैं, पर क्या कभी सोचा है उन हाथों के बारे में जो इन दीयों को आकार देते हैं?
दंतेवाड़ा के दक्षिण बस्तर के सैकड़ों आदिवासी कुम्हार आज भी मिट्टी से दीये बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। मगर बाज़ार और मुनाफाखोरी के बीच, ये कलाकार खुद अंधकार में हैं।
जहाँ शहरों में दीयों की चमक बढ़ रही है, वहीं इन कारीगरों को एक दीये के बदले मुश्किल से ₹1–₹2 ही मिलते हैं।
“हम दीये बनाते हैं, लेकिन हमारे घरों में अंधेरा है…” — यह बात हमने ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान सुनी, जिसने दिल को छू लिया।
इस दीपावली, आइए एक छोटा कदम उठाएँ —
स्थानीय कुम्हारों से दीये खरीदें, ताकि उनकी रौशनी उनके घरों तक पहुँचे
क्योंकि हर दीया सिर्फ मिट्टी नहीं, किसी के जीवन की उम्मीद है।
चलिए उस विशेष भावनात्मक चर्चा को आपको सीधे रूबरू करवाते है ।
उमाशंकर.. दीपावली आने वाली है। शहरों में रोशनी और बाजार की रौनक दिख रही है। लेकिन यहाँ गाँव में आप लोगों के घरों में सन्नाटा क्यों है?
जुगधर कुम्हार (स्थानीय कारीगर): दादा, हमारे घर में मिट्टी है, मेहनत है, मगर रौनक नहीं। हम दीये बनाते हैं, लेकिन खुद के घर में अंधेरा है।
उमाशंकर: कितने में बेचते हैं आप अपने दीये?
जुगधर : बस दो रुपये में… कभी-कभी डेढ़ में भी दे देते हैं। जो व्यापारी आता है, मोलभाव करता है। कहता है – “बाजार में सस्ता मिलता है।” हमें मजबूरी में देना पड़ता है, क्योंकि अगर नहीं बेचेंगे तो सारा माल बेकार हो जाएगा।
उमाशंकर: क्या सरकार या कोई संस्था मदद करती है?
जुगधर : कभी-कभी मेले लगते हैं, पर वहाँ तक पहुँचना भी आसान नहीं। हमारे पास गाड़ी नहीं, किराया नहीं। शहर के लोग आते हैं, ले जाते हैं, और मुनाफा कमा लेते हैं। हमारे हिस्से में बस मेहनत और धूल ही बचती है।
उमाशंकर: दीपावली के मौके पर आप लोगों की क्या इच्छा होती है?
जुगधर (धीमे स्वर में): दादा ,बस इतना कि एक बार लोग हमारे बनाए दीये से दीपावली मनाएँ, तो हमें भी लगे कि हमारी मेहनत की लौ किसी के घर नहीं, हमारे जीवन में भी रोशनी लाई है।
उमाशंकर: अगर आप शहर के लोगों को कुछ कहना चाहें तो?
जुगधर : बस यही – मोलभाव मत कीजिए। हमारे दीये की कीमत दो रुपये नहीं, हमारी मेहनत और उम्मीद की कीमत है। जब आप एक दीया खरीदते हैं, तो हमारे बच्चों के चेहरे पर मुस्कान जलती है।
दंतेवाड़ा के ये कुम्हार सिर्फ मिट्टी नहीं गढ़ते — वे उम्मीद गढ़ते हैं।
शहरों की चकाचौंध में उनकी मेहनत कहीं खो न जाए।
इस दीपावली, एक दीया उनसे खरीदिए — ताकि अंधेरा सिर्फ रात में रहे, ज़िंदगी में नहीं।
