संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द
मैंने सुना है, एक यहूदी फकीर है, लिएबमेन। उसने लिखा है कि मैं बहुत परेशान था। सभी परेशान हैं उसी परेशानी से। परेशानी यह थी कि बड़ा जीवन में दुख था।
किसके जीवन में सुख है?
लेकिन लिएबमेन ने लिखा है कि मैं इसलिए और भी ज्यादा दुखी था कि दूसरे लोग सुखी मालूम होते थे और रास्ते पर लोग हंसते हुए मिलते थे। मैं किसी से पूछता कि कैसे हो? तो वह कहता कि बहुत अच्छा। सभी लोग कहते हैं। लिएबमेन सोचता है कि मैं तो कभी भी इस हालत में नहीं हुआ कि कह सकूं कि बहुत अच्छा। सारी दुनिया सुख में है, मैं ही सिर्फ एक दुख में हूं।
लोगों के चेहरे देख कर बड़ी भूल पैदा हो जाती है।और हमें लोगों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं और अपनी आत्मा दिखाई पड़ती है इसलिए तुलना हमेशा मुश्किल क्यों होती है? हम भीतर असलियत को देख लेते हैं और दूसरे आदमी का अभिनय दिखाई पड़ता है।
रास्ते के लोग हंसते हुए दिखाई पड़ते हैं, मुस्कुराते हुए दिखाई पड़ते हैं। पति-पत्नी को रास्ते पर चलते देखें तो ऐसा लगता है स्वर्ग में रहते होंगे। और अगर घर में कभी उनको पता न हो और झांक लें तो पता चलेगा कि नरक की उन्होंने पूरी व्यवस्था कर रखी है। एक, चेहरे हैं जो हम बाहर से लगाए हुए हैं, वे हमने, वे भी हमने इसलिए लगाए हैं कि भीतर की हालतें ऐसी हैं कि कोई देख ले तो बड़ा अपमानजनक होगा। इसलिए चेहरे लगा लिए। उनसे हम बाहर काम चला लेते हैं। घर लौट कर असली आदमी हो जाते हैं।
लिएबमेन ने देखा, सब लोग हंसते हैं, सब खुश हैं, सब सुखी हैं, मैं अकेला दुखी हूं। उसने एक रात भगवान से प्रार्थना की कि मैं इतना दुखी हूं, मेरे से नाराजगी क्या है? और फिर मैं ज्यादा नहीं मांगता। मैं उतनी ही खुशी मांगता हूं जितनी तूने दूसरों को दी है। अगर यह भी ज्यादा है तो मैं किसी दूसरे से अपना दुख बदलने को राजी हूं। मेरा दुख किसी और को दे दें, किसी को भी। इस गांव में किसी को भी मेरा दुख दे दें और किसी का भी दुख मैं बदलने को राजी हूं। लेकिन अब मेरा दुख का बोझ ढोना बहुत कठिन है।
सो गया रोता हुआ। आंख में आंसू थे। रात उसने एक सपना देखा, सपना देखा कि एक बड़ा भारी भवन है, गांव के सारे लोग इकट्ठे हुए हैं और हर आदमी अपने-अपने दुख की गठरी अपने कंधे पर लेकर चला आ रहा है। आज उसने पहली दफा लोगों के दुख देखे। बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। कोई भी गठरी अपने से छोटी न दिखाई पड़ती थी। इसके बाद आवाज सुनाई पड़ी कि सब अपनी गठरियां खूंटियों पर टांग दें–दुखों की गठरियां–और फिर जिसको जो चुनना हो वह उसकी गठरी चुन ले। दौड़ कर उसने अपनी गठरी टांगी। उसने देखा कि सारे लोग दौड़ कर टांग रहे हैं, वह तो सोचता था कि बाकी लोग खुश हैं। लेकिन वे भी अपने दुख से छूटने को आतुर थे। फिर दूसरी आवाज आई कि अब जिसको जिसकी गठरी चुननी हो वह चुन ले। लिएबमेन ने जब गठरियां टंगी देखीं तो वह भागा अपनी गठरी की तरफ कि अपनी वापस उठा ले, कोई और न उठा ले। क्योंकि अपने कम से कम पहचाने हुए दुख तो हैं उसके भीतर, जाने-माने। दूसरों की गठरियां भी बड़ी दिखाई पड़ती हैं और पता नहीं कैसे दुख हों, जिनसे कोई पहचान भी नहीं। और उसने बड़ी घबड़ाहट में दौड़ कर अपनी गठरी उठा कर चारों तरफ देखा। और देखा कि हरेक ने अपनी गठरी उठा ली। उसने पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहाः अपनी गठरी कम से कम जानी-मानी, पहचानी तो है।
सोचते थे हम भी कि दूसरों से दुख बदल लें। लेकिन दूसरों के दुख कभी देखे न थे। दूसरों की हंसियां देखीं तो यह झूठी थीं और अपने दुख देखे थे जो सच्चे थे। और दोनों के बीच तुलना की थी, इसलिए कठिनाई हो गई।
चारों तरफ हम दुख देखना चाहते हैं ताकि अपना दुख हलका हो जाए। बुराई देखना चाहते हैं ताकि अपनी बुराई हलकी हो जाए। चारों तरफ कुरूपता देखना चाहते हैं ताकि अपनी कुरूपता, अपनी अग्लीनेस दिखाई न पड़े, ताकि हम सुंदर, स्वस्थ, अच्छे मालूम पड़ें। आदमी सदा से यह करता रहा। लेकिन नये युग में एक बात हुई है कि हमारे पास बुराई को देखने के साधन बहुत उपलब्ध हो गए हैं, जो कभी भी न थे। अखबार हैं, रेडियो हैं। सुबह से सारी दुनिया की बीमारियों की खबरें घर ले आते हैं। आप सुबह से देखते हैं और कहते हैं, दुनिया बहुत बुरी हो गई। दुनिया ऐसी ही थी। सिर्फ अखबार न थे जो खबर ले आते।