अगर स्त्रियां तय कर लें, तो युद्ध असंभव हो जाएं…

संकलन एवम् प्रस्तुति/ मक्सिम आनन्द

पुरुषों को मरने-मारने की ऐसी लंबी बीमारी है, क्योंकि बिना मरे-मारे वे अपने पुरुषत्व को ही सिद्ध नहीं कर पाते हैं, वे यह बता ही नहीं पाते हैं कि मैं भी कुछ हूं।तो मरने-मारने का एक लंबा जाल! और फिर जो मर जाए ऐसे जाल में उसको आदर देना! और उन्होंने स्त्रियों को भी राजी कर लिया है कि जब तुम्हारे बेटे युद्ध पर जाएं तो तुम टीका करना! रो रही है मां, आंसू टपक रहे हैं, और वह टीका कर रही है! और आशीर्वाद दे रही है!यह पुरुष ने जबरदस्ती तैयार करवाया हुआ है। अगर दुनिया भर की स्त्रियां तय कर लें, तो युद्ध असंभव हो जाएं।लेकिन सब व्यवस्था, सब सोचना, सारी संस्कृति, सारी सभ्यता पुरुष के गुणों पर खड़ी है। इसलिए पूरा मनुष्य का इतिहास युद्धों का इतिहास है। अगर हम तीन हजार वर्ष की कहानी उठा कर देखें तो मुश्किल मालूम पड़ती है कि आदमी कभी ऐसा रहा हो जब युद्ध न किया हो। युद्ध चल ही रहा है। आज इस कोने में आग लगी है जमीन के, कल दूसरे कोने में, परसों तीसरे कोने में। आग लगी ही है, आदमी जल ही रहा है, आदमी मारा ही जा रहा है। और अब? अब तो हम उस जगह पहुंच गए हैं जहां हमने बड़ा इंतजाम किया है। अब हम आगे आदमी को बचने नहीं देंगे।अगर पुरुष सफल हो जाता है अपने अंतिम उपाय में, तीसरे महायुद्ध में, तो शायद मनुष्यता नहीं बचेगी। इतना इंतजाम तो कर लिया है कि हम पूरी पृथ्वी को नष्ट कर दें। पूरी तरह से नष्ट कर दें–यह पुरुष के इतिहास की आखिरी जो क्लाइमेक्स हो सकती थी चरम, वहां हम पहुंच गए हैं।यह हम क्यों पहुंच गए हैं? क्योंकि पुरुष गणित में सोचता है, प्रेम उसके सोचने की भाषा नहीं है।

ध्यान रहे, विज्ञान विकसित हुआ है, धर्म विकसित नहीं हो सका। और धर्म तब तक विकसित नहीं होगा जब तक स्त्री समान जीवन और संस्कृति में दान नहीं करती है और उसे दान का मौका नहीं मिलता है।गणित से जो चीज विकसित होगी, वह विज्ञान है। गणित परमात्मा तक ले जाने वाला नहीं है। चाहे दो और दो कितने ही बार जोड़ो, तो भी बराबर परमात्मा होने वाला नहीं है। गणित कितना ही बढ़ता चला जाए वह पदार्थ से ऊपर जाने वाला नहीं है।

प्रेम परमात्मा तक पहुंच सकता है। लेकिन हमारी सारी खोज गणित की है, तर्क की है। वह विज्ञान पर लेकर खड़ा हो गया है। उसके आगे नहीं जाता है।प्रेम की हमारी कोई खोज नहीं है। शायद प्रेम की बात करना भी हम स्त्रियों के लिए छोड़ देते हैं। या कवियों के लिए, जिनको हम करीब-करीब स्त्रियों जैसा गिनती करते हैं। उनकी गिनती हम कोई पुरुषों में नहीं करते।

नीत्शे ने तो एक अदभुत बात लिखी है, लिखा है कि बुद्ध और क्राइस्ट को मैं वूमेनिश मानता हूं! स्त्रैण मानता हूं! बुद्ध और क्राइस्ट को मैं स्त्रैण मानता हूं; मैं पुरुष नहीं मानता।क्योंकि जो लड़ने की बात ही नहीं करते और जो लड़ने से बचने की बात करते हैं, वे पुरुष कैसे हो सकते हैं? पुरुषत्व तो लड़ने में ही है।(ओशो साहित्य से)

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